महाभारत शल्य पर्व अध्याय 55 श्लोक 1-20

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पन्चपन्चाशत्तम (55) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: पन्चपन्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

बलरामजी की सलाह से सब का कुरुक्षेत्र के समन्तपन्चक तीर्थ में जाना और वहां भीम तथा दुर्योधन में गदा युद्ध की तैयारी

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! इस प्रकार वह तुमुल युद्ध हुआ, जिसके विषय में अत्यन्त दुखी हुए राजा धृतराष्ट्र ने इस तरह प्रश्न किया । धृतराष्ट्र बोले-संजय ! गदायुद्ध उपस्थित होने पर बलरामजी को निकट आया देख मेरे पुत्र ने भीमसेन के साथ किस प्रकार युद्ध किया ? । संजय ने कहा-राजन् ! बलरामजी को निकट पाकर युद्ध की इच्छा रखने वाला आपका शक्तिशाली पुत्र महाबाहु दुर्योधन बड़ा प्रसन्न हुआ । भरतनन्दन ! हलधर को देखते ही राजा युधिष्ठिर उठ कर खड़े हो गये और बड़े प्रेम से विधिपूर्वक उनकी पूजा करके उन्हें बैठने के लिये उन्होंने आसन दिया तथा उनके स्वास्थ्य का समाचार पूछा । तब बलराम ने युधिष्ठिर से मधुर वाणी में शूरवीरों के लिये हितकर धर्म युक्त वचन कहा- ‘नृपश्रेष्ठ ! मैंने माहात्म्य कथा कहने वाले ऋषियों के मुख से यह सुना है कि कुरुक्षेत्र परम पावन पुण्यमय तीर्थ है। वह स्वर्ग प्रदान करने वाला है। देवता, ऋषि तथा महात्मा ब्राह्मण सदा उसका सेवन करते हैं । ‘माननीय नरेश ! जो मानव वहां युद्ध करते हुए अपने शरीर का त्याग करेंगा, उनका निश्चय ही स्वर्गलोक में इन्द्र के साथ निवास होगा । ‘अतः नरेश्वर ! हम सब लोग यहां से शीघ्र ही समन्त पन्चक तीर्थ में चलें। वह भूमि देवलोक में प्रजापति की उत्तर वेदी के नाम से प्रसिद्ध है। त्रिलोकी के उस परम पुण्यतम सनातन तीर्थ में युद्ध करके मृत्यु को प्राप्त हुआ मनुष्य निश्चय ही स्वर्गलोक में जायगा’ । महाराज ! तब ‘बहुत अच्छा’, कहकर वीर राजा कुन्ती पुत्र युधिष्ठिर समन्तपन्चक तीर्थ की ओर चल दिये। उस समय अमर्ष में भरा हुआ तेजस्वी राजा दुर्योधन हाथ में विशाल गदा लेकर पाण्डवों के साथ पैदल ही चला । गदा हाथ में लिये कवच धारण किये दुर्योधन को इस प्रकार आते देख आकाश में विचरने वाले देवता साधु-साधु कहकर उसकी प्रशंसा करने लगे । वातिक और चारण भी उसे देखकर हर्ष से खिल उठे। पाण्डवों से घिरा हुआ आपका पुत्र कुरुराज दुर्योधन मतवाले गजराज की सी गति का आश्रय लेकर चल रहा था । उस समय शंखों की ध्वनि, रणभेरियों के गम्भीर घोष और शूरवीरों के सिंहनादों से सम्पूर्ण दिशाएं गूंज उठीं । तदनन्तर वे सभी श्रेष्ठ नरवीर आपके पुत्र के साथ पश्चिमाभिमुख चलकर पूर्वोक्त कुरुश्रेत्र में आ पहुंचे। वह उत्तम तीर्थ सरस्वती के दक्षिण तट पर स्थित एवं सद्रति की प्राप्ति कराने वाला था। वहां कहीं ऊसर भूमि नहीं थी। उसी स्थान में आकर सब ने युद्ध करना पसंद किया । फिर तो भीमसेन कवच पहन कर बहुत बड़ी नोकवाली गदा हाथ मे ले गरुड का सा रूप धारण करके युद्ध के लिये तैयार हो गये । तत्पश्चात् दुर्योधन भी सिर पर टोप लगाये सोने का कवच बांधे भीम के साथ युद्ध के लिये डट गया। राजन् ! उस समय आपका पुत्र सुवर्णमय गिरिराज मेरु के समान शोभा पा रहा था । कवच बांधे हुए दोनों वीर भीमसेन और दुर्योधन युद्ध भूमि में कुपित हुए दो मतवाले हाथियों के समान प्रकाशित हो रहे थे ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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