श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 24-36
दशम स्कन्ध: तृतीय अध्याय (पूर्वार्ध)
माता देवकी ने कहा- प्रभो! वेदों ने आपके जिस रूप को अव्यक्त और सबका कारण बतलाया है, जो ब्रह्म, ज्योतिस्वरूप, समस्त गुणों से रहित और विकारहीन हैं, जिसे विशेषणरहित—अनिर्वचनीय, निष्क्रिय एवं केवल विशुद्ध सत्ता के रूप में कहा गया है— वही बुद्धि आदि के प्रकाशक विष्णु आप स्वयं हैं। जिस समय ब्रह्मा की पूरी आयु—दो परार्थ समाप्त हो जाते हैं, काल शक्ति के प्रभाव से सारे लोक नष्ट हो जाते हैं, पञ्च महाभूत अहंकार में, अहंकार महत्त्तत्व में और महत्त्तत्व प्रकृति में लीन हो जाता है, उस समय एकमात्र आप ही शेष रह जाते हैं, इसी से आपका एक नाम ‘शेष’ भी है। प्रकृति के एकमात्र सहायक प्रभो! निमेष से लेकर वर्षपर्यंत अनेक विभागों में विभक्त जो काल हैं, जिसकी चेष्टा से यह सम्पूर्ण विश्व सचेष्ट हो रहा है और जिसकी कोई सीमा नहीं है, वह आपकी लीला मात्र है। आप सर्वशक्तिमान और परम कल्याण के आश्रय हैं। मैं आपकी शरण लेती हूँ।
प्रभो! यह जीव मृत्युग्रस्त हो रहा है। यह मृत्युरूप कराल व्याल से भयभीत होकर सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों में भटकता रहा है; परन्तु इसे कभी कहीं भी ऐसा स्थान न मिल सका, जहाँ यह निर्भय होकर रहे। आज बड़े भाग्य से इसे आपके चरणारविन्दों की शरण मिल गयी। अतः अब यह स्वस्थ होकर सुख की नींद सो रहा है। औरों की बात ही क्या, स्वयं मृत्यु भी इससे भयभीत होकर भाग गयी है। प्रभो! आप हैं भक्त्तभयहारी। और हम लोग इस दुष्ट कंस से बहुत ही भयभीत हैं। अतः आप हमारी रक्षा कीजिये। आपका यह चतुर्भुज दिव्यरूप ध्यान की वस्तु है। इसे केवल मांस-मज्जामय शरीर पर ही दृष्टि रखने वाले देहाभिमानी पुरुषों के सामने प्रकट मत कीजिये। मधुसूदन! इस पापी कंस को यह बात मालूम न हो कि आपका जन्म मेरे गर्भ से हो रहा है। मेरा धैर्य टूट रहा है। आपके लिए मैं कंस से बहुत डर रही हूँ। विश्वात्मन! आपका यह रूप अलौकिक है। आप शंख, चक्र, गदा और कमल की शोभा से युक्त अपना यह चतुर्भुज रूप छिपा लीजिये। प्रलय के समय आप इस सम्पूर्ण विश्व को अपने शरीर में वैसे ही स्वाभाविक रूप से धारण करते हैं, जैसे कोई मनुष्य अपने शरीर में रहने वाले छिद्र्रूप आकाश को। वही परम पुरुष परमात्मा आप मेरे गर्भवासी हुए, यह आपकी अद्भुत मनुष्य-लीला नहीं तो और क्या?
श्रीभगवान ने कहा- देवि! स्वायम्भुव मन्वन्तर में जब तुम्हारा पहला जन्म हुआ था, उस समय तुम्हारा नाम था पृश्नि और ये वसुदेव सुतपा नाम के प्रजापति थे। तुम दोनों के दृदय बड़े शुद्ध थे। जब ब्रह्माजी ने तुम दोनों को संतान उत्पन्न करने की आज्ञा दी, तब तुम लोगों ने इन्द्रियों का दमन करके उत्कृष्ट तपस्या की। तुम दोनों ने वर्षा, वायु, घाम, शीत, उष्ण आदि काल के विभिन्न गुणों का सहन किया और प्राणायाम के द्वारा अपने मन के मल धो डाले। तुम दोनों कभी सूखे पत्ते खा लेते और कभी हवा पीकर ही रह जाते। तुम्हारा चित्त बड़ा शांत था। इस प्रकार तुम लोगों ने मुझ से अभीष्ट वस्तु प्राप्त करने की इच्छा से मेरी आराधना की। मुझ में चित्त लगाकर ऐसा परम दुष्कर और घोर तप करते-करते देवताओं के बारह हज़ार वर्ष बीत गये।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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