श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 1-14
द्वितीय स्कन्ध: प्रथम अध्यायः (1)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! तुम्हारा लोकहित के लिये किया हुआ यह प्रश्न बहुत ही उत्तम है। मनुष्यों के लिये जितनी भी बातें सुनने, स्मरण करने या कीर्तन करने की हैं, उन सबमें यह श्रेष्ठ है। आत्मज्ञानी महापुरुष ऐसे प्रश्न का बड़ा आदर करते हैं । राजेन्द्र! जो गृहस्थ घर के काम-धंधों में उलझे हुए हैं, अपने स्वरुप को नहीं जानते, उनके लिये हजारों बातें कहने-सुनने एवं सोचने, करने की रहती हैं । उनकी सारी उम्र यों ही बीत जाती है। उनकी रात नींद या स्त्री-प्रसंग से कटती है और दिन धन की हाय-हाय या कुटुम्बियों के भरण-पोषण में समाप्त हो जाता है । संसार में जिन्हें अपना अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्धी कहा जाता है, वे शरीर, पुत्र, स्त्री आदि कुछ नहीं हैं, असत् हैं; परन्तु जीव उनके मोह में ऐसा पागल-सा हो जाता है कि रात-दिन उनको मृत्यु का ग्रास होते देखकर भी चेतता नहीं । इसलिये परीक्षित्! जो अभय पद को प्राप्त करना चाहता है, उसे तो सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण की ही लीलाओं का श्रवण, कीर्तन और स्मरण करना चाहिये । मनुष्य-जन्म का यही—इतना ही लाभ है कि चाहे जैसे हो—ज्ञान से, भक्ति से अथवा अपने धर्म की निष्ठा से जीवन को ऐसा बना लिया जाय कि मृत्यु के समय भगवान् की स्मृति अवश्य बनी रहे । परीक्षित्! जो निर्गुण स्वरुप में स्थित हैं एवं विधि-निषेध की मर्यादा को लाँघ चुके हैं, वे बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी प्रायः भगवान् के अनन्त कल्याणमय गुणगणों के वर्णन में रमे रहते हैं । द्वापर के अन्त में इस भगवदरूप अथवा वेद तुल्य श्रीमद्भागवत नाम के महापुराण का अपने पिता श्रीकृष्णद्वैपायन से मैंने अध्ययन किया था । राजर्षे! मेरी निर्गुणस्वरुप परमात्मा में पूर्ण निष्ठा है। फिर भी भगवान् श्रीकृष्ण की मधुर लीलाओं ने बलात् मेरे ह्रदय को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। यही कारण है कि मैंने इस पुराण का अध्ययन किया । तुम भगवान् के परम भक्त हो, इसलिये तुम्हें मैं इसे सुनाउँगा। जो इसके प्रति श्रद्धा रखते हैं, उनकी शुद्ध चित्तवृत्ति भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य प्रेम के साथ बहुत शीघ्र लग जाती है । जो लोग लोक या परलोक की किसी भी वस्तु की इच्छा रखते हैं या इसके विपरीत संसार में दुःख का अनुभव करते जो उससे विरक्त हो गये हैं और निर्भय मोक्ष पद को प्राप्त करना चाहते हैं, उनसाधकों के लिये तथा योग सम्पन्न सिद्ध ज्ञानियों के लिये भी समस्त शास्त्रों का यही निर्णय है कि वे भगवान् के नामों का प्रेम से संकीर्तन करें । अपने कल्याण-साधन की ओर से असावधान रहने वाले पुरुष की वर्षों लम्बी आयु भी अनजान में ही व्यर्थ बीत जाती है। उससे क्या लाभ! सावधानी से ज्ञानपूर्वक बितायी हुई घड़ी, दो घड़ी भी श्रेष्ठ है; क्योंकि उसके द्वारा अपने कल्याण की चेष्टा तो की जा सकती है । राजर्षि खट्वांग अपनी अपनी आयु की समाप्ति का समय जानकर दो घड़ी में ही सब कुछ त्यागकर भगवान् के अभयपद को प्राप्त हो गये । परीक्षित्! अभी तो तुम्हारे जीवन की अवधि सात दिन की है। इस बीच में ही तुम अपने परम कल्याण के लिये जो कुछ करना चाहिये, सब कर लो ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-