श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 15-29
द्वितीय स्कन्ध प्रथम अध्यायः (19)
मृत्यु का समय आने पर मनुष्य घबराये नहीं। उसे चाहिये कि वह वैराग्य के शस्त्र से शरीर और उससे सम्बन्ध रखने वालों के प्रति ममता को काट डाले । धैर्य के साथ घर से निकलकर पवित्र तीर्थ के जल में स्नान करे और पवित्र तथा एकान्त स्थान में विधिपूर्वक आसन लगाकर बैठ जाय । तत्पश्चात् परम पवित्र ‘अ उ म्’ इन तीन मात्राओं से युक्त प्रणव का मन-ही-मन जप करे। प्राण वायु को वश में करके मन का दमन करे और एक क्षण के लिये भी प्रणव को न भूले । बुद्धि की सहायता से मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से हटा ले और कर्म की वासनाओं से चंचल हुए मन को विचार के द्वारा रोक कर भगवान् के मंगलमय रूप में लगाये । स्थिर चित्त से भगवान् के श्रीविग्रह में से किसी एक अंग का ध्यान करते-करते विषय-वासना से रहित मन को पूर्ण रूप से भगवान् में ऐसा तल्लीन कर दे कि फिर और किसी विषय का चिन्तन ही न हो। वही भगवान् विष्णु का परमपद है, जिसे प्राप्त करके मन भगवत्प्रेम रूप आनन्द से भर जाता है । यदि भगवान् का ध्यान करते समय मन रजोगुण से विक्षिप्त या तमोगुण से मूढ़ हो जाय तो घबराये नहीं। धैर्य के साथ योग धारणा के द्वारा उसे वश में करना चाहिये; क्योंकि धारणा उक्त दोनों गुणों के दोषों को मिटा देती है ॥ २० ॥ धारणा स्थिर हो जाने पर ध्यान में जब योगी अपने परम मंगलमय आश्रय (भगवान्) को देखता है तब उसे तुरंत ही भक्ति योग की प्राप्ति हो जाती है । परीक्षित् ने पूछा—ब्रम्हन्! धारणा किस साधन से किस वस्तु में किस प्रकार की जाती है और उसका क्या स्वरुप माना गया है, जो शीघ्र ही मनुष्य के मन का मैल मिटा देती है ? श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! आसन, श्वास, आसक्ति और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके फिर बुद्धि के द्वारा मन को भगवान् के के स्थूल रूप में लगाना चाहिये । यह कार्यरूप सम्पूर्ण विश्व जो कुछ कभी था, है या होगा—सब-का-सब जिसमें दीख पड़ता है वही भगवान् का स्थूल-से-स्थूल आर विराट् शरीर है। जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महतत्व और प्रकृति—इन सात आवरणों से घिरे हुए इस ब्रम्हाण्ड शरीर में जो विराट् पुरुष भगवान् हैं, वे ही धारणा के आश्रय हैं, उन्हीं की धारणा की जाती है । तत्वज्ञ पुरुष उनका इस प्रकार वर्णन करते हैं—पाताल विराट् पुरुष के तलवे हैं, उनकी एडियाँ और पंजे रसातल हैं, दोनों गुल्फ—एड़ी के ऊपर की गाँठें महातल हैं, उनके पैर के पिंडे तलातल हैं,। विश्व-मूर्ति भगवान् के दोनों घुटने सुतल हैं, जाँघें वितल और अतल हैं, पेंडू भूतल है और परीक्षित्! उनके नाभिरूप सरोवरों को ही आकाश कहते हैं । आदिपुरुष परमात्मा की छाती को स्वर्गलोक, गले को महर्लोक, मुख को जनलोक और ललाट को तपोलोक कहते हैं। उस सहस्त्र सिर वाले भगवान् का मस्तक समूह ही सत्यलोक है । इन्द्रादि देवता उनकी भुजाएँ हैं। दिशाएँ कान और शब्द श्रवणेन्द्रिय हैं। दोनों अश्विनीकुमार उनकी नासिका के छिद्र हैं; गन्ध घ्राणेन्द्रिय है और धधकती हुई आग उनका मुख है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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