महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 4

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अष्टात्रिंश (38) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 4 का हिन्दी अनुवाद

इनके सहस्त्रों मस्तक हैं। ये ही पुरुष, ध्रुव, अव्यक्त एवं सनातन परमात्मा हैं। इनके सहस्त्रों नेत्र, सहस्त्रों मुख और सहस्त्रों चरण हैं। ये सर्वव्यापी परमेश्वर सहस्त्रों भुजाओं, सहस्त्रों रूपों और सहस्त्रों नामों से युक्त हैं। इनके मस्तक सहस्त्रों मुकुटों से मण्डित हैं। ये महान् तेजस्वी देवता हैं। सम्पूर्ण विश्व इन्हीं का स्वरूप है। इनके अनेक वर्ण हैं। ये देवताओं के भी आदि कारण हैं और अव्यक्त प्रकृति से परे (अपने सच्चिदानन्द धन स्वरूप में स्थित) हैं। उन्हीं सामर्थ्यवान भगवान नारायण ने सबसे पहले जल की सृष्टि की है। फिर उस जल में उन्होंने स्वयं ही ब्रह्माजी को उत्पन्न किया। ब्रह्माजी के चार मुख हैं। उन्होंने स्वयं ही सम्पूर्ण लोकों की सृष्टि की है। इस प्रकार आदिकाल में समस्त जगत की उत्पत्ति हुई। फिर प्रलयकाल आने पर, जेसा कि पहले हुआ था, समस्त स्थावर जंगम सृष्टि का नाश हो जाता है एवं चराचर जगत का नाश होने के पश्चात ब्रह्मा आदि देवता भी अपने कारणतत्त्व में लीन हो जाते हैं। और समस्त भतों का प्रवाह प्रकृति मं विलीन हो जाता है, उस समय एकमात्र सर्वात्मा भगवान महानारायण शेष रह जाते हैं। भरतनन्दन! भगवान नारायण के सब अंग सर्वदेवमय हैं। राजन! द्युलोक उनका मस्तक, आकाश नाभि और पृथ्वी चरण हैं। दोनों अश्विनीकुमार उनकी नासिका के स्थान में हैं, चन्द्रमा और सूर्य, नेत्र हैं एवं इन्द्र और अग्रिदेवता उन परमात्मा के मुख हैं। इसी प्रकार अन्य सब देवता भ उन महात्मा के विभिन्न अवयव हैं। जैसे गुँथी हुई माला की सभी मणियों में एक ही सूत्र व्याप्त रहता है, उसी प्रकार भगवान श्रीहरि सम्पूणर्् जगत को व्याप्त करके स्थित हैं। प्रलय काल के अन्त में सबको अन्धकार से व्याप्त देख सर्वश परमात्मा ब्रह्मभूत महायोगी नारायण ने स्वयं अपने आपको ही ब्रह्मारूप में प्रकट किया। इस प्रकार अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले, सब की उत्पत्ति के कारण भूत और सम्पूर्ण भूतों के अध्यक्ष श्रीहरि ने ब्रह्मारूप से प्रकट हो सनत्कुमार, रुद्र, मनु तथा तपस्वी ऋषि मुनियों को उत्पन्न किया। सबकी सृष्टि उन्होंने ही की। उन्हीं से सम्पूर्ण लोकों और प्रजाओं की उत्पत्ति हुई। युधिष्ठिर! समय आने पर उन मनु आदि ने भी सृष्टि का विस्तार किया। उन सब महात्माओं से नाना प्रकार की सृष्टि प्रकट हुई। इस प्रकार एक ही सनातन ब्रह्म अनेक रूप में अभिव्यक्त हो गया। भरतनन्दन! अब तक कई करोड़ कल्प बीत चुके हैं और कितने ही करोड़ प्रलयकाल भी गत हो चुके हैं। मन्वन्तर, युग, कल्प और प्रलय- ये निरन्तर चक्र की भाँति घूमते रहते हैं। यह सम्पूर्ण जगत विष्णुमय है। देवाधिदेव भगवान नारायण चतुर्मुख भगवान ब्रह्मा की सृष्टि करके सम्पूर्ण लोकों का हित करने के लिये क्षीरसागर में निवास करते हैं। ब्रह्माजी सम्पूर्ण देवताओं तथा लोकों के पितामह हैं, इसलिये श्रीनाराण देव सबके प्रपितामह हैं। जो अव्यक्त होते हुए व्यक्ति शरीर में स्थित हैं, सृष्टि और प्रलय काल में भी जो नित्य विद्यमान रहते हैं, उन्हीं सर्वशक्तिमान् भगवान नारायण ने इस जगत की रचना की है। युधिष्ठिर! इन भगवान श्रीकृष्ण ने ही नारायण रूप में स्थित होकर स्वयं ब्रह्म, सूर्य, चन्द्रमा और धर्म की सृष्टि की है। ये समस्त प्राणियों के अन्तरात्मा हैं और कार्यवश अनेक रूपों में अवतीर्ण होते रहते हैं। इनके सभी अवतार दिव्य हैं और देवगणों से संयुक्त भी हैं। मैं उन सबका वर्णन करता हूँ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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