महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 24

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अष्टात्रिंश (38) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 24 का हिन्दी अनुवाद

प्राग्ज्योतिषपुर का राजा भौमासुर, मुर के दस पुत्र तथा प्रधान-प्रधान राक्षस उन अन्त:पुर की रक्षा करते हुए सदा उसके समीप ही रहते थे। युधिष्ठिर! पृथ्वीपुत्र भौमासुर तपस्या के अन्त में वरदान पाकर इतना गर्वोन्मत्त हो गया था कि इसने कुण्डल के लिये देवमाता अदिति तक का तिरस्कार कर दिया। पूर्वकाल में समस्त महादैत्यों ने एक साथ मिलकर भी वैसा अत्यन्त घोर पाप नहीं किया था, जैसा अकेले इस महान् असुर ने कर डाला था। पृथ्वीदेवी ने उसे उत्पन्न किया था, प्राग्ज्योतिषपुर उसकी राजधानी थी तथा चार युद्धोन्मत्त दैत्य उसके राज्य की सीमा की रक्षा करने वाले थे। वे पृथ्वी से लेकर देवयानतक के मार्ग को रोककर खड़े रहते थे। भयानक रूप वाले राक्षसाों के साथ रहकर वे देव समुदाय को भयभीत किया करते थे। उन चारों दैत्यों के नाम इस प्रकार हैं- हयग्रीव, निशुम्भ, भयंकर पंचजन तथा सहस्त्र पुत्रों सहत महान असुर मुर, जो वरदान प्राप्त कर चुका था। उसी के वध के लिये चक्र, गदा और खंग धारण करने वाले ये महाबाहु श्रीकृष्ण वृष्णिकुल में देव की के गर्भ से उत्पन्न हुए हैं। वसुदेवजी के पुत्र होने से ये जनार्दन ‘वासुदेव’ कहलाते हैं। तात युधिष्ठिर! इनका तेज सम्पूर्ण विश्व में विख्यात हैं। इन पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण का निवास स्थान प्रधानत: द्वारका ही है, यह तुम सब लोग जानते हो। द्वारकापुरी इन्द्र की निवास स्थान अमरावजी पुरी से भी अत्यन्त रमणीय है। युधिष्ठिर! भूण्डल में द्वाकरा की शोभा सबसे अधिक है। यह तो तुम प्रत्यक्ष ही देख चुके हो। देवपुरी के समान सुशोभित द्वारका नगरी में वृष्णिवंशियों के बैठने के लिये एक सन्दर सभी है, जो दाशा ही के नाम से विख्यात है। उसकी लम्बाई और चौड़ाई एक-एक योजन की है। उसमें बलराम और श्रीकृष्ण आदि वृष्णि और अन्धकवंश के सभी लोग बैठते हैं और सम्पूर्ण लोक जीवन की रक्षा में दत्तचित्त रहते हैं। भरतश्रेष्ठ ! एक दिन की बा है, सभी यदुवंशी उस सभा में विराजमान थे। इतने में ही दिव्य सुगन्ध से भरी हुई वायु चलने लगी और दिव्य कुसुमों की वर्षा होने लगी। तदनन्तर दो ही घड़ी के अंदर आकाश में सहस्त्रों सूर्यों के समान महान एवं अद्भुत तेजो राशि प्रकट हुई। वह धीरे-धीरे पृथ्वी पर आकर खड़ी हो गयी। उस तेजामण्डल के भीतर श्वेत हाथी पर बैठे हुए इन्द्र सम्पूर्ण देवताओं सहित दिखायी दिये। बलराम, श्रीकृष्ण तथा राजा उग्रसेन वृष्णि और अन्धकवंश के अन्य लोगों के साथ सहसा उठकर बाहर आये औरसबने देवराज इन्द्र को नमस्कार किया। इन्द्र हाथी से उतरकर शीघ्र ही भगवान श्रीकृष्ण को ह्रदय से लगाया। फिर बलराम तथा राजा उग्रसेन से भी उसी प्रकार मिले। भूतभावना ऐश्वर्यशाली इन्द्र ने वसुदेव, उद्धव, महामति विकद्रु, पद्युम्न, साम्ब, निशठ, अनिरुद्ध, सात्यकि, गद, सारण, अक्रूर, कृतवर्ता, चारुदष्ण तथा सुदेष्ण आदि अन्य यादवों का भी यथोचित रीति से आलिंगन करके उन सबकी ओर दृष्टिपात किया। इस प्रकार उन्होंने वृष्णि और अन्धकवंश के प्रधान व्यक्तियों को ह्रदय से लगाकर उनकी दी हुई पूजा ग्रहण की तथा मुख को नीचे की ओर झुकाकर वे इस प्रकार बोले। इन्द्र ने कहा- भैया कृष्ण! तुम्हारी माता अदिति की आज्ञा से मैं यहाँ आया हूँ। तात! भूमिपुत्र नरकासुर ने उनके कुण्डल छीन लिये हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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