महाभारत वन पर्व अध्याय 207 श्लोक 18-32
सप्ताधिकद्विशततम (207) अध्याय: वन पर्व (समस्या पर्व )
व्याध का घर बहुत सुन्दर था। वहां पहुंचकर उस व्याध ने ब्राह्मण को बैठने के लिये आसन दिया और अर्ध्य देकर उस श्रेष्ठ ब्राह्मण की आदर सहित पूजा की । सुखपूर्वक बैठ जाने पर ब्राह्मण ने व्याध से कहा- ‘तात। यह मांस बेचने का काम निश्चय ही तुम्हारे योग्य नहीं है। मुझे तो तुम्हारे इस घोर कर्म से बहुत संताप हो रहा है’ । व्याध बोला– ब्रह्मन् । यह काम मेरे बाप दादों के समय से होता चला आ रहा । मेरे कुल के लिये जो उचित है, वही धंधा मैंने भी अपनाया है। मैं अपने धर्म का ही पालन कर रहा हूं; अत: आप मुझ पर क्रोध न करें । द्विज श्रेष्ठ । विधाता ने इस कुल में जन्म देकर मेरे लिये जो कार्य प्रस्तुत किया है, उसका पालन करता हुआ मैं अपने बूढ़े माता पिता की बड़े यत्न से सेवा करता रहता हूं । सत्य बोलता हूं । किसी की निन्दा नहीं करता और अपनी शक्ति के अनुसार दान भी करता हूं । देवताओं, अतिथियों और भरण-पोषण के योग्य कुटुम्बीजनों तथा सेवकों को भोजन देकर जो बचता है, उसी से शरीर का निर्वाह करता हूं ।द्विजश्रेष्ठ । किसी के दोषों की चर्चा नहीं करता और अपने से बलिष्ठ पुरुष की निन्दा नहीं करता, क्योंकि पहले के किये हुए शुभा शुभ कर्मों का परिणाम स्वयं कर्ता को ही भोगना पड़ता है । कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य, दण्डनीति और त्रयी विद्या ऋक्, यज, साम के अनुसार यज्ञादि का अनुष्ठान करना और कराना ये लोगों की जीविका के साधन हैं। इनसे ही लौकिक और परलौकिक उन्नति सम्भव होती है । शूद्र का कर्तव्य है सेवा कर्म, वैश्य का कार्य है खेती और युद्ध करना क्षत्रिय का कर्म माना गया है। ब्रह्मचर्य, तपस्या, मन्त्र –जप, वेदाध्ययन तथा सत्य भाषण- ये सदा ब्राह्मण के पालन करने योग्य धर्म हैं । राजा अपने-अपने वर्णा श्रमोचित कर्म में लगी हुई प्रजा का धर्म पूर्वक शासन करता है और जो कोई अपने कर्मों से गिरकर विपरीत दिशा में जा रहे हों, उन्हें पुन: अपने कर्तव्य के पालन में लगता है । इसलिये राजाओं से सदा डरते रहना चाहिये: क्योंकि वे प्रजा के स्वामी हैं। जो लोग धर्म के विपरीत कार्य करते हैं, उन्हें राजा दण्ड द्वारा उसी प्रकार पाप से रोकते हैं, जैसे बाणों द्वारा वे हिंसक पशुओं को हिंसा से रोकते हैं । ब्रह्मर्षे । यह राजा जनक का नगर है, यहां कोई ऐसा नहीं है, जो वर्ण धर्म के विरुद्ध आचरण करे। द्विज श्रेष्ठ । यहां चारों वर्णों के लोग अपना-अपना कर्म करते हैं । ये राजा जनक दुराचारी को, वह अपना पुत्र ही क्यों न हो, दण्डनीय मानकर दण्ड देते ही हैं तथा किसी भी धर्मात्मा को कष्ट नहीं पहुंचने देते हैं । विप्रवर। राजा जनक ने सब ओर गुप्तचर लगा रखे हैं, अत: उनके द्वारा वे धर्मानुसार सब पर दृष्टि रखते हैं। सम्पत्ति का उपार्जन, राज्य की रक्षा तथा अपराधियों दण्ड देना- ये क्षत्रियों के कर्तव्य हैं । राजा लोग अपने धर्म का पालन करते हुए ही प्रचुर सम्पत्ति पाने की इच्छा रखते हैं और राजा सभी वर्णों का रक्षक होता है । ब्रह्मन् । मैं स्वयं किसी जीव की हिंसा नहीं करता । सदा दूसरों के मारे हुए सूअर और भैंसों का मांस बेचता हूं ।
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