महाभारत सभा पर्व अध्याय 47 श्लोक 1-19

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०९:४७, २५ जुलाई २०१५ का अवतरण ('==सप्तचत्वारिंश (47) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)== <div style...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

सप्तचत्वारिंश (47) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: सप्तचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

दुर्योधन का मयनिर्मित सभा भवन को देखना और पग पग पर भ्रम के कारण उपहासक का पात्र बनना तथा युधिष्ठिर के वैभव को देखकर उसका चिन्तित होना।

वैशम्पायनजी कहते है- नरश्रेष्ठ जनमेजय! राजा दर्योधन ने उस सभा भवन में निवास करते समय शकुनि के साथ धीरे-धीरे उस सारी सभा का निरीक्षण किया। कुरुनन्दन दुर्योधन उस सभा में उन दिव्य अभिाप्रायों (दृश्यों) को देखने लगा, जिन्हें उसने हस्तिनापुर में पहले कभी नही देखा था। एक दिन की बात है, राजा दुर्योधन उस सभा भवन में घूमता हुआ स्फटिक मणिमय स्थल पर जा पहुँचा ओर वहाँ जल की आशंका से उसने अपना वस्त्र ऊपर उठा लिया। इस प्रकार बुद्धि मोह हो जाने से उसका मन उदास हो गया और वह उस स्थान से लौटकर सभा में दूसरी ओर चक्कर लगाने लगा। तदनन्तर वह स्थल में ही गिर पड़ा, इससे वह मन ही मन दुखी और लज्जित हो गया तथा वहाँ से हटकर लम्बी साँसें लेता हुआ सभा भवन में घूमने लगा। तत्पश्चात स्फटिकमणि के समान स्वच्छ जल से भरी और स्फटिक मणियम कमलों से सुशोभित बावली को स्थल मानकर वह वस्त्र सहित जल में गिर पड़ा। उसे जल में गिरा देख महाबली भीमसेन हँसने लगे। उनके सेवकों ने भी दुर्योधन की हँसी उड़ायी तथा राजाज्ञा से उन्होंने दुर्योधन को सुन्दर वस्त्र दिये। दुर्योधन की यह दुरवस्था देख महाबली भीमसेन, अर्जुन और नकुल-सहदेव सभी उस समय जोर जोर से हँसने लगे। युर्योधन स्वभाव से ही अमर्षशील था, अत: वह उनका उपहास न सह सका। वह अपने चेहरे के भाव को छिपाये रखने के लिये उनकी ओर दृष्टि नहीं डालता था। फिर स्थल में ही जल का भ्रम हो जाने से वह कपड़े उठाकर इस प्रकार चलने लगा, मानो तैरने की तैयारी कर रहा हो। इस प्रकार जब वह ऊपर चढ़ा, तब सब लोग उनकी भ्रान्ति पर हँसने लगे। उसके बाद राजा दुर्योधन ने एक स्फटिकमणि का बना हुआ दरवाजा देखा, जो वास्वत में बंद था, तो भी खुला दीखता था। उसमें प्रवेश करते ही उसका सिर टकरा गया और उसे चक्कर सा आ गया। ठीक उसी तरह का एक दूसरा दरवाजा मिला, जिसमें स्फटिकमणि के बड़े-बड़े किंवाड़ लगे थे। यद्यपि वह खुला था, तो भी दुर्योधन ने उसे बंद समझकर उस पर दोनों हाथों से धक्का देना चाहा। किंतु धक्के से वह स्वयं द्वार के बाहर निकल कर गिर पड़ा। आगे जाने पर उसे एक बहत बड़ा फाटक और मिला, परंतु कहीं पिछले दरवाजों की भाँति यहाँ भी कोई अग्रिम घटना न घटित हो इस भय से वह उस दरवाजे के इधर से ही लौट आया। राजन्! इस प्रकार बार बार धोखा खाकर राजा दुर्योधन राजसूय महायज्ञ में पाण्डवों के पास आयी हुई अद्भुत समृद्धि पर दृष्टि डालकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर की आज्ञा ले अप्रसन्न मन से हस्तिनापुर को चला गया। पाण्डवों की राजलक्ष्मी से संतप्त हो उसी का चिन्तन करते हुए जाने वाले राजा दुर्योधन के मन में पापपूर्ण विचार का उदय हुआ। कुरुश्रेष्ठ! यह देखकर कि कुनती के पुत्रों का मन प्रसन्न है, भूमण्डल के सब नरेश उनके वश में हैं तथा बच्चों से लकर बूढ़ों तक सारा जगत उनका हितैषी है, इस प्रकार महात्मा पाण्डवों की महिमा अत्यन्त बढ़ी हुई देखकर धृतराष्ट पुत्र दुर्योधन का रंग फीका पड़ गया। रास्ते में जाते समय वह नाना प्रकार के विचारों से चिन्तातुर था। वह अकेला ही परम बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर की अलौकिक सभा तथा अनुपम लक्ष्मी के विषय में सोच रहा था।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।