महाभारत वन पर्व अध्याय 113 श्लोक 12-25

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १०:०५, २५ जुलाई २०१५ का अवतरण ('==त्रयोदशाधि‍कशततम (113) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्राप...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

त्रयोदशाधि‍कशततम (113) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

महाभारत: वन पर्व: त्रयोदशाधि‍कशततम अध्‍याय: श्लोक 12-25 का हिन्दी अनुवाद

राजा ने वि‍भाण्‍डक मुनि‍ के आगमन पथ में बहुत से पशु तथा वीर पशुरक्षक भी नि‍युक्‍त कर दि‍यें और सबको यह आदेश दे दि‍या की जब पुत्र की अभि‍लाषा रखने वाले महर्षि‍ वि‍भाण्‍डक तुमसे पूछें, तब हाथ जोड़कर उन्‍हे इस प्रकार उत्‍तर देना- ‘ से सब आपके पुत्र के ही पशु है, ये खेत भी उन्‍हीं के जोते जा रहे है। महषें ! आज्ञा दें, हम आपका कौन सा प्रि‍य कार्य करें । हम सब लोग आपके आज्ञापालक दास हैं । इधर प्रचण्‍ड कोपधारी महात्‍मा वि‍भाण्‍डक फल-मूल लेकर अपने आश्रम आये । वहां बहुत खोज करने पर भी जब अपना पुत्र उन्‍हें दि‍खायी न दि‍या, तब वे अत्‍यनत क्रोध में भर गये । कोप से उनका हृदय वि‍दीर्ण सा होने लगा । उनके मन में यह संदेह हुआ कि‍ कही राता लोमपाद की तो यह करतुत नहीं है । तब वे चम्‍पानगरी की ओर चल दि‍ये, मानो अंगराज को उनके राष्‍ट् और नगरसहि‍त जला देना चाहतें हों । थककर भूख से पीड़ि‍त होने पर वि‍भाण्‍डक मुनि‍ सायंकाल में उन्‍हीं समृद्धि‍शाली गोष्‍ठों में गये । गापगणों उनकी वि‍वि‍ध पूर्वक पूजा की । वे राजा की भांति‍ सुख सुवि‍धा के साथ वहीं रातभर रहे । गोपगणों से अत्‍यनत सत्‍कार पाकर मुनि‍ ने पूछा- ‘तुम कि‍सके गोपालक हो’ तब उन सबने नि‍कट आकर कहा- ‘यह सारा धन आपके पुत्र का ही है’ । देश में सम्‍मानि‍त हो वे ही मधुर वचन सुनते-सुनते मुनि‍ का रजोगुण जनि‍त अत्‍यधि‍क क्रोध बि‍ल्‍कुल शान्‍त हो गया । वे प्रसन्‍नतापूर्वक राजधानी में जाकर अंगराज से मि‍ले । नरश्रेष्‍ठ लोमपाद से पूजि‍त हो मुनि‍ ने अपने पुत्र को उसी प्रकार ऐश्‍वर्य सम्‍पन्‍न देखा, जैसे देवराज इन्‍द्र स्‍वर्गलोक में देखे जाते है। पुत्र के पास ही उन्‍होने बहू शान्‍ता को भी देखा, जो वि‍द्युत के समान उद्भासि‍‍त हो रही थी । अपने पुत्र के अधि‍कार में आयें हुए ग्राम, घोष और बहू शान्‍ता को देखकर उनका महान कोप शान्‍त हो गया । युधि‍ष्‍ठि‍र ! उस समय वि‍भाण्‍डक मुनि‍ ने राजा लोमपाद पर बड़ी कृपा की । सूर्य और अग्‍नि‍ के समान प्रभावशाली महर्षि‍ ने अपने पुत्र को वहां छोड़ दि‍या और कहा- ‘बेटा ! पुत्र उत्‍पन्‍न हो जाने पर इन अंगराज के सारे प्रि‍य कार्य सि‍द्ध करके फि‍र वन में ही आ जाना । ऋष्‍यश्रृंग ने पि‍ता की आज्ञा का अक्षरश: पालन कि‍या । अन्‍त में पुन: उसी आश्रम में चले गये, जहां उनके पि‍ता रहते थे, नरेन्‍द्र ! शान्‍ता उसी प्रकार अनुकुल रहकर उनकी सेवा करती थी, जैसे आकाश में रोहि‍णी- चन्‍द्रमा की सेवा करती है । अथवा जैसे सौभग्‍यशालि‍नी अरून्‍धती वसि‍ष्‍ठजी की, लोपामुद्रा अगस्‍त्‍यजी की, दमयन्‍ती नल की तथा शची वज्रधारी इन्‍द्र की सेवा करती हैं । युधि‍ष्‍ठि‍र ! जैसे नारायणी इन्‍द्र सेना सदा महर्षि‍ मुदूल के अधीन रहती थी तथा पाण्‍डुनन्‍दन ! जैसे सीता महात्‍मा दशरथनन्‍दन श्रीराम के अधीन रहीं है और द्रौपदी सदा तुम्‍हारे वश में रहती आयी है, उसी प्रकार शान्‍ता भी सदा अधीन रहकर वनवासी ऋष्‍यश्रृंग की प्रसन्‍नतापूर्वक सेवा करती थी । उनका यह पुण्‍यमय आश्रम, जो पवि‍त्र कीर्ति‍ से युक्‍त है, इस महान कुण्‍ड की शोभा बढ़ाता हुआ प्रकाशि‍त हो रहा है, राजन ! यहां स्‍नान करके शुद्ध एवं कृतकृत्‍य होकर अन्‍य तीथों की यात्रा करों ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत तीर्थयात्रा पर्व में लोमश तीर्थ यात्रा के प्रसंग में ऋष्‍यश्रृंगोपाख्‍यान वि‍षयक एक सौं तेरहवां अध्‍याय पूरा हुआ ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।