महाभारत वन पर्व अध्याय 114 श्लोक 19-30

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चतुर्दशाधि‍कशततम (114) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

महाभारत: वन पर्व: चतुर्दशाधि‍कशततम अध्‍याय: श्लोक 19-30 का हिन्दी अनुवाद

कुन्‍तीकुमार ! उनके द्वारा अपना दान होते ही पृथ्‍वी बहुत दु:खी हो गयी और कुपि‍त हो लोकनाथ प्रभु ब्रह्मा से इस प्रकार बोली- ‘भगवन ! आप मुझे कि‍सी मनुष्‍य को न सौंपें । यदि‍ मुझे मनुष्‍य को सौंपेंगे तो वह व्‍यर्थ होगा, क्‍योंकि‍ मैं अभी रसातल को चली जाउंगी । राजन ! पृथ्‍वी देवी को वि‍षाद करती देख महर्षि‍ भगवान कश्‍यप ने प्रार्थना द्वारा उन्‍हें प्रसन्‍न कि‍या । पाण्‍डुनन्‍दन ! उनकी तपस्‍या से प्रसन्‍न हुई पृथ्‍वी पुन: जल से उपर उठकर वेदी के रूप में स्‍थि‍त हो गयी । राजन ! वह पृथ्‍वी देवी ही यहां इस मि‍ट्टी की देवी के रूप में प्रकाशि‍त हो रही है। महाराज ! इस पर आरूढ़ हो तुम बल पराक्रम से सम्‍पन्‍न हो जाओगे । युधि‍ष्‍ठि‍र ! वही यह वेदीस्‍वरूपा पृथ्‍वी समुद्र का आश्रय लेकर स्‍थि‍त है; तुम्‍हारा कल्‍याण हो । तुम अकेले ही इस पर चढ़कर समुद्र को पर करो । मैं तुम्‍हारे लि‍ये स्‍वस्‍ति‍वाचन करूंगा, जि‍ससे तुम आज इस वेदीपर चढ़ सको; अजमीढ कुलनन्‍दन ! नहीं तो मनुष्‍य के द्वारा स्‍पर्श हो जाने पर यह वेदी समुद्र मे प्रवेश कर जाती है ।। (समुद्र मे स्‍नान करते समय उसकी प्रार्थना के लि‍ये नि‍म्‍नांकि‍त मन्‍त्र का उच्‍चारण करना चाहि‍ये) जि‍न में यह सम्‍पूर्ण वि‍श्‍व लीन होता है तथा जो सबसे श्रेष्‍ठ है, उन भगवान वि‍ष्‍णु को नमस्‍कार है । देवेश्‍वर ! आप खारे समुद्र में नि‍वास करें । ‘हे समुद्र ! अग्‍नि‍, मि‍त्र (सूर्य) और दि‍व्‍य जल- ये सब तुम्‍हारी योनि‍ (उत्‍पति‍ कारण) हैं। तुम सर्वव्‍यापी परमात्‍मा के रेतस (वीर्य या शक्‍ति‍) हो और तुम्‍हारी अमृत की उत्‍पति‍ के स्‍थान हो ।‘ पाण्‍डुनन्‍दन ! इस सत्‍य वाक्‍य का उच्‍चारण करते हुए तुम शीघ्रतापूर्वक इस वेदी पर आरूढ़ हो जाओ । ‘हे महासागर ! अग्‍नि‍ तुम्‍हारी योनि‍ (कारण) है और यज्ञ शरीर है, तुम भगवान वि‍ष्‍णु की शक्‍ति‍ के आधार और मोक्ष के साधन हो।‘ पाण्‍डुपुत्र ! इस सत्‍य वचन को बालते हुए नदि‍यों के स्‍वामी समुद्र में स्‍नान करना चाहि‍ये । कुरूश्रेष्‍ट ! जल का स्‍वामी समुद्र देवताओं का अधि‍ष्‍ठान कि‍या । कुन्‍तीनन्‍दन ! उपर महासागर का कुश के अग्रभाग द्वारा भी स्‍पर्श नही करना चाहि‍ये । वेशम्‍पायनजी कहते है- जनमेजय ! तदनन्‍तर लोमशजी के स्‍वस्‍ति‍वाचन करने के पश्‍चात महात्‍मा राजा युधि‍ष्‍ठि‍र ने उनकी बतयी हुई सारी वि‍धि‍यों का पालन करते हुए समुद्र में स्‍नान करने के लि‍ए प्रवेश कि‍या। इसके बाद महेन्‍द्रपर्वत पर जाकर रात्रि‍ बि‍तायी ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत तीर्थयात्रा पर्व में लोमश तीर्थ यात्रा के प्रसंग में महेन्‍द्राचलगमन वि‍षयक एक सौं चौंदहवां अध्‍याय पूरा हुआ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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