महाभारत सभा पर्व अध्याय 49 श्लोक 1-14

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एकोनन्चाशत्तम (49) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: एकोनन्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय! गान्धारीपुत्र दुयो्रधन के सहित सुबल नन्दन शकुनि राजा युधिष्ठिर के राजसूय महायज्ञ का उत्सव देखकर जब लौटा, तब पहले दुर्योधन के अपने अनुकूल मत को जानकर और उसकी पूरी बातें सुनकर सिंहासन पर बैठे हुए प्रज्ञाचक्षु महाप्राज्ञ राजा धृतराष्ट्र के पास जाकर इस प्रकार बोला। शकुनि ने कहा- महाराज! दुर्योधन की कान्ति फीकी पड़ती जा रही है। वह सफेद और दुर्बल हो गया है। उसकी बड़ी दयनीय दशा है। वह निरन्तर चिन्ता में डूबा रहता है। नरेश्वर! उसके मनोभाव को समझिये। उसे शत्रुओं की ओर से कोई अच्छा कष्ट प्राप्त हुआ है। आप उसकी अच्छी तरह परीक्षा क्यों नहीं करते? दुर्याेधन आपका ज्येष्ठ पुत्र है। उसके ह्रदय में महान् शोक व्याप्त है। आप उसका पता क्यों नही लगाते? धृतराष्ट्र दुर्योधन के पास जाकर बोले- बेटा दुर्योधन! तुम्हारे दु:ख का कारण क्या है? सुना है तुम बड़े कष्ट में हो। कुरुनन्दन! यदि मेरे सुनने योग्य हो तो वह बात मुझे बताओं। यह शकुनि कहता है कि तुम्हारी कान्ति फीकी पड़ गयी है। तुम सफेद और दुबले हो गये हो, परंतु मैं बहुत सोचने पर भी तुम्हारे शोक का कोई कारण नहीं देखता। बेटा! इस सम्पूर्ण महान ऐश्वर्य का भार तुम्हारे ही ऊपर है। तुम्हारे भाई सुह्रद कभी तुम्हारे प्रतिकूल आचरण नही करते। तुम बहुमूलय वस्त्र ओढ़ते पहनते हो, बढ़िया विशु्द्ध भात खाते हो तथा अच्छी जाति के घोड़े तुम्हारी सवारी में रहते हैं, फिर किस दु:ख से तुम सफेद और दुबले हो गये हो? बहुमूल्य शय्याएँ, मन को प्रिय लगने वाली युवतियाँ, सभी ऋतुओं में लाभदायक भवन और इच्छानुसार सुख देने वाले विहार स्थान देवताओं की भांति ये सभी वस्तुएँ नि:संदेह तुम्हें वाणी द्वारा कहने मात्र से सुलभ हैं। मेरे दुर्द्धर्ष पुत्र! फिर तुम दीन की भाँति क्यों शोक करते हो ? जैसे स्वर्ग में इन्द्र को सम्पूर्ण मनोवान्छित भोग सुलभ हैं, उसी प्रकार समस्त अभिलषित भोग और खाने पीने की विविधि उततम वस्तुएँ तुम्हारे लिये सदा प्रस्तुत हैं। फिर तुम किस लिये शोक करते हो? तुमने कृपाचार्य से निरुक्त, निगम, छन्द, वेद के छहों अंंग, अर्थशास्त्र तथा आठ प्रकार के व्याकरण शास्त्रों का अध्ययन किया है। हलायुध, कृपाचार्य तथा द्रोणाचार्य से तुमने अस्त्रविद्या सीखी है। बेटा! तुम इस राज्य के स्वामी होकर इच्छानुसार सब वस्तुओं का उपभोग करते हो। सूत और मागध सदा तुम्हारी स्तुति करते रहते हैं। तुम्हारी बुद्धि की प्रखरता प्रसिद्ध है। तुम इस जगत में ज्येष्ठ पुत्र के लिये सुलभ समस्त राजोचित सुखों के भागी हो। फिर भी तुम्हें कैसे चिन्तो रही है? बेटा! तुम्हारे इस शोक का कारण क्या है? यह मुझे बताओ। वैशम्पायनजी कहते हैं- पिता का यह कथन सुनकर क्रोध के वशीभूत हुए मूढ़ दुयो्रधन ने उन्हें अपना विचार बताते हुए इस प्रकार उत्तर दिया। दुर्योधन बोला- पिताजी! मैं अच्छा खाता पहनता तो हूँ, पंरतु कायरों की भाँति। मैं समय के परिवर्तन की प्रतीक्षा में रहकर अपने ह्रदय में भारी ईष्या्र धारण करता हूँ। जो शत्रुओं के प्रति अमर्श रख उन्हें पराजित करके विश्राम लेता है और अपनी प्रजा के शत्रुजनित क्लेश से छुड़ाने की इच्छा करता है, वही पुरुष कहलाता है। भारत! संतोष लक्ष्मी और अभिमान का नाश कर देता है। दया अैर भय ये दोनों भी वैसे ही हैं। इन (संतोषादि) से युक्त मनुष्य कभी ऊँचा पद नहीं पा सकता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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