महाभारत सभा पर्व अध्याय 49 श्लोक 15-32

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एकोनन्चाशत्तम (49) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: एकोनन्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 15-32 का हिन्दी अनुवाद

कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर की वह अत्यन्त प्रकाशमान राज लक्ष्मी देखकर मुझे भोजन अच्छा नहीं लगता। वही मेरी कान्ति को नष्ट करने वाली है। शत्रुओं केा बढ़ते और अपने को हीन दशा में जाते देख तथा युधिष्ठिर की उस अदृश्य लक्ष्मी पर भी प्रत्यक्ष की भाँति दृष्टिपात करके मैं चिन्तित हो उठा हूँ। यही कारण है कि मेरी कान्ति फीकी पड़ गयी है तथा मैं दीन, दुर्बल अैर सफेद हो गया हूँ। राजा युधिष्ठिर अपने घर में बसने वाले अठ्ठासी हजार स्नातकों का भरण पोषण करते हैं। उनमें से प्रत्येक की सेवा के लिये तीस तीस दासियाँ प्रस्तुत रहती हैं। इसके सिवा युधिष्ठिर के महल में दर हजार अन्य ब्राह्मण प्रतिदिन सोने की थालियों में भोजन करते हैं। काम्बोज राज ने काले, नीले और लाल रंग के कदली मृग के चर्म तथा अनेक बहुमूल्य कम्बल युधिष्ठिर के लिये भेंट में भेजे थे। उन्हीं की भेजी हुई सैकड़ों हथिनियाँ, सहस्त्रों गायें और घोड़े तथा तीस तीस हजार ऊँट और घोड़ियाँ वहाँ विचरती थीं। सभी राजा लोग भेंट लेकर युधिष्ठिर के भवन में एकत्र हुए थे। पृथ्वी! उस महान् यज्ञ में भूपालगण कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर के लिये भाँति भाँति के बहुत से रत्न लाये थे। बुद्धिमान पाण्डुकुमार युधिष्ठिर के यज्ञ में धन की जैसी प्राप्ति हुई है, वैसी मैंने पहले कहीं न तो देखी हैं और न सुनी ही है। महाराज! शत्रु की वह अनन्त धनराशि देखकर मैं चिन्तित हो रहा हूँ, मुझे चैन नहीं मिलता। ब्राह्मण लोग तथा हरी भरी खेती उपजा कर जीवन निर्वाह करने वाले और बहुत से गाय बैल रखने वाले वैश्य सैकड़ों दलों में इकठ्ठे होकर तीन खर्व भेंट लेकर राजा के द्वार पर रोके हुए खड़े थे। वे सब लोग सोने के सुन्दर कलश और इतना धन लेकर आये थे, तो भी वे सभी राज द्वार में प्रवेश नहीं कर पाते थे अर्थात् उनमें से कोई कोई ही प्रेवश कर पाते थे। देवांगनाएँ इन्द्र के लिये कलशों में जैसा मधु लिये रहती हैं, वैसा ही वरुण देवता का दिया हुआ और काँस के पात्र में रखा हुआ मधु समुद्र ने युधिष्ठिर के लिये उपहार में भेजा था। वहाँ छींके पर रखकर लाया हुआ एक हजार स्वर्ण मुद्राओं का बना हुआ कलश रखा था, जिसमें अनेक प्रकार के रत्न जड़े हुए थे। उस पात्र में स्थित समुद्र जल को उत्तम शंख में लेकर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर का अभिषेक किया था। तात! वह सब देखकर मुझे ज्वर सा आ गया। भरतश्रेष्ठ! वैसे ही सुवर्ण कलशों को लेकर पाण्डव लोग जल लाने के लिये पूर्व, दक्षिण, पश्चिम समुद्र तक तो जाया करते थे, किंतु सुना जाता है कि उत्तर समुद्र के समीप, जहाँ पक्षियों के सिवा मनुष्य नहीं जा सकते, वहाँ भी जाकर अर्जुन अपार धन कर के रूप में वसूल कर लाये। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में एक यह अद्भुत बात और भी हुई थी, वह मैं बताता हूँ सुनिये। जब एक लाख ब्राह्मणों को रसाई परोस दी जाती, तब उसके लिये एक संकेत नियत किया गया था, प्रतिदिन लाख की संख्या पूरी होते ही बड़े जोर से शंख बजाया जाता था। भारत! ऐसा शंख वहाँ बार-बार बजता था और मैं निरन्तर उस शंख ध्वनि को सुना करता था, इससे मेरे शरीर में रोमान्च हो आता था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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