महाभारत सभा पर्व अध्याय 54 श्लोक 1-11

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चतु:पश्चात्तम (54) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: चतु:पश्चात्तम अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद

धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना

धृतराष्ट्र बोले- दुर्योधन! तुम मेरे ज्येष्ठ पुत्र हो, जेठी रानी के गर्भ से उत्पन्न हुए हो। बेटा! पाण्डवों से द्वेष मत करो, क्योंकि द्वेष करने वाला मनुष्य मृत्यु के समान कष्ट पाता है। युधिष्ठिर किसी के साथ छल नहीं करते, उनका धन तुम्हारे ही जैसा है। जो तुम्हारे मित्र हैं, उनके भी मित्र हैं और युधिष्ठिर तुमसे कभी द्वेष नहीं करते। भरत कुल तिलक! फिर तुम्होर जैसे पुरुष को उनसे द्वेष क्यों करना चाहिये? राजन्! तुम्हारा और युधिष्ठिर का कुल एवं पराक्रम एक सा है। बेटा! तुम महोवश अपने भाई की लक्ष्मी की इच्दा क्यों करते हो? इसे अधम न बनो, शान्त भाव से रहो। शोक न करो। भरत श्रेष्ठ! यदि तुम उन यज्ञ वैभव को पाने की अभिलाषा रखते हो तो ऋत्विज लोग तुम्हारे लिये भी गायत्री आदि सात छन्दरूपी तन्तुओं से युक्त राजसूय महायज्ञ का अनुष्ठान करा देंगे। उसमें देश देश के राजालोग तुम्हारे लिये भी बड़े प्रेम और आदर से रत्न, आभूषण तथा बहुत धन ले आयेंगे। बेटा! यह पृथ्वी कामधेनु है। इसे वीरपत्नी भी कहते हैं। अपने पराक्रम से जीती हुई भूमि मनोवान्छित फल प्रदान करती है। यदि तुममें भी बल और पराक्रम हो तो तुम इस पृथ्वी का यथेष्ट उपभोग कर सकते हो। तात! दूसरे के धनी की स्पृहा रखना नीच पुरुषों का काम है। जो भली भाँति अपने धन संतुष्ट तथा अपने धर्म में ही स्थित है, वही सुख पूर्वक उन्न्तिशील होता है। दूसरके के धन को हड़पने की कोई चेष्टा न करना, अपने कर्त्तव्य को पूरा करने के लिये सदा प्रयत्नशील रहना और अपने को जो कुछ प्राप्त है, उसकी रक्षा करना- यही उत्तम वैभव का लक्षण है। जो विपत्तियों में व्यथित नहीं होता, सदा उद्योगशील बना रहता है, जिसमें प्रमाद का अभाव है तथा जिसके ह्रदय में विनय रूप सद्र्ण है, वह चतुर मनुष्य सदा कल्याण ही देखता है। ये पाण्डुपुत्र तुम्हारी भुजाओं के समान हैं, इन्हें काटो मत। इसी प्रकार तुम भाईयों के धन के लिये मित्रद्रोह न करो। राजन्! तुम पाण्डवों से द्वेष न करो। वे मुम्हारे भाई है और भाइयों का सारा धन तुम्हारा ही है। तात! मित्रद्रोह से बहुत बड़ा पाप होता है। देखों, जो तुम्हारे बाप-दादे हैं, वे ही उनके भी हैं। भरतश्रेष्ठ! तुम यज्ञ में धन दान करो, मन को प्रिय लगने वाले भोग भोगो और निर्भय होकर स्त्रियों के साथ क्रिड़ा करते हुए शान्त रहो।

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में दुर्योधन संतापविषयक चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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