महाभारत सभा पर्व अध्याय 61 श्लोक 1-13
एकषषिृतम (61) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
जूए में शकुनि के छल से प्रत्येक दाँव पर युधिष्ठिर की हार
युधिष्ठिरने कहा—शकुने ! तुमने छल से इस दाँव में मुझे हरा दिया, इसी पर तुम गर्वित हो उठे हो; आओ, हम लोग पुन: परस्पर पासे फेंककर जुआ खेलें। मेरे पास हजारों निष्कों से भरी हुई बहुत-सी सुन्दर पेटियाँ रक्खी हैं । इसके सिवा खजाना है, अक्षय धन है और अनेक प्रकार के सुवर्ण हैं । राजन् ! मेरा यह सब धन दाँव पर लगा दिया गया । मैं इसी के द्वारा तुम्हारे साथ खेलता हूँ। १० प्राचीनकाल में प्रचलित एक सिक्का, जो एक कर्ष अथवा सोलह मासे सोने का बना होता था । वैशम्पायनजी कहते हैं—जनमेजय ! यह सुनकर मर्यादा से कभी च्यूत न होने वाले कौरवों के वंशधर एवं पाण्डु के ज्येष्ठ पुत्र राजा युधिष्ठिर से शकुनि ने फिर कहा-‘लो’ यह दाँव भी मैंने ही जीता’ । युधिष्ठिरने कहा—यह जो परमानन्द दायक राजरथ है, जो हम लोगों को यहाँ तक ले आया है, रथों में श्रेष्ठ जैत्र नामक पुण्यमय श्रेष्ठ रथ है । चलतें समय इससे मेघ और समुद्र की गर्जना के सम्मान गम्भीर ध्वनि होती रहती है । यह अकेला ही एक हजार रथों के समान है । इसके ऊपर बाघ का चमड़ा लगा हुआ है । यह अत्यन्त सुहृढ़ है । इसके पहिये तथा अन्य आवश्यक सामग्री बहुत सुन्दर है । यह परंम शोभायमान रथ क्षुद्र घण्टिकाओं से सजाया गया है । कुरर पक्षी की सी कान्ति वाले आठ अच्छे घोड़े, जो समूचे राष्ट्र में सम्मानित हैं, इस रथ को वहन करते हैं । भूमिका स्पर्श करने-वाला कोई भी प्राणी इन घोड़ों के सामने पड़ जाने पर बच नहीं सकता । राजन् इन घोड़ों सहित यह रथ मेरा धन है, जिसे दाँव पर रखकर मैं तुम्हारे साथ जूआ खेलता हूँ। वैशम्पायनजी कहते हैं—जनमेजय ! यह सुनकर छल का आश्रय लेने वाले शकुनि ने पुन: पासे फेंके और जीत का निश्चय करके युधिष्ठिर से कहा-‘लो’ यह भी जीत लिया’। युधिष्ठिरने कहा— मेरे पास एक लाख तरूणी दासियाँ हैं, जो सुवर्णमय माड्रलिक आभूषण धारण करती हैं । जिनके हाथों में शंख की चूडि़याँ, बाँहों में भुजबंद, कण्ड में निष्कों का हार तथा अन्य अंगो में भी सुन्दर आभूषण हैं । बहुमूल्य हार उनकी शोभा बढ़ाते हैं । उनके वस्त्र बहुत ही सुन्दर हैं । वे अपने शरीर में चन्दन का लेप लगाती हैं, मणि और सुवर्ण धारण करती हैं तथा चौसठ कलओं में हैं, निपुण हैं । नृत्यु और गाने में भी वे कुशल हैं । ये सब-की-सब मेरे आदेश से स्त्रात कों, मन्त्रियों तथा राजाओं की सेवा-परिचर्या करती हैं । राजन् ! यह मेरा धन है, जिसे दाँव पर लगाकर मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ । वैशम्पायनजी कहते हैं—जनमेजय ! यह सुनकर कपटी शकुनि ने पुन: जीत का निश्चय करके पासे फेंके और युधिष्ठिर कहा-'यह दाँव भी मैंने ही जीता'। युधिष्ठिरने कहा—दासियों की तरह ही मेरे यहाँ एक लाख दास हैं । वे कार्यकुशल तथा अनुकूल रहने वाले हैं । उनके शरीर पर सदा सुन्दर उत्तरीय वस्त्र सुशोभित होते हैं। वे चतुर, बुद्धिमान्, संयमी और तरूण अवस्था वाले हैं । उनके कानों में कुण्डल झिलमिलाते रहते हैं । वे हाथों में भोजनपात्र लिये दिन-रात अतिथियों को भोजन परोसते रहते हैं । राजन् ! यह मेरा धन है, जिसे दाँव पर लगाकर मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ।
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