महाभारत सभा पर्व अध्याय 67 श्लोक 43-54

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सप्तषष्टितम (67) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: सप्तषष्टितम अध्याय: श्लोक 43-54 का हिन्दी अनुवाद

रात्‍य, धन तथा मुख्‍य-मुख्‍य रत्‍नों को हार जाने पर भी पाण्‍डवों को उतना दु:ख नहीं हुआ था, जितना कि द्रौपदी के लज्‍जा एवं क्रोधयुक्‍त कटाक्षपात से हुआ था। द्रौपदी को अपने पतियों की ओर देखती देख दु:शासन उसे बडे़ वेग से झकझोरकर जोर-जोर से हँसते हुए ‘दासी’ कहकर पुकारने लगा । उस समय द्रौपदी मूर्छित-सी हो रही थी। कर्ण को बड़ी प्रसन्‍नता हुई । उसने खिलखिलाकर हँसते हुए दु:शासन के उस कथन की बड़ी सराहना की । सुबलपुत्र गान्‍धार राज शकुनि ने भी दु:शासन का अभिनन्‍दन किया। उस समय वहाँ जितने समासद् उपस्थित थे, उनमें से कर्ण, शकुनि और दर्योधन को छोड़कर अन्‍य सब लोगों को सभा में इस प्रकार घसीटी जाती हुई द्रौपदी की दुर्दशा देखकर बड़ा दु:ख हुआ। उसम समय भीष्‍म ने कहा—सौभाग्‍यशाली बहू ! धर्म का स्‍वरूप अत्‍यन्‍त सूक्ष्‍म होने के कारण मैं तुम्‍हारे इस प्रश्‍न का ठीक-ठीक विवेचन नहीं कर सकता । जो स्‍वामी नहीं है वह पराये धन को दाँव पर नहीं लगा सकता, परंतु स्‍त्री को सुदा अपने स्‍वामी के अधीन देखा जाता है, अत: इन सब बातों पर विचार करने से मुझसे कुछ कहते नहीं बनता। मेरा विश्‍वास है कि धर्मराज युधिष्ठिर धन-समृद्धि से भरी हुई इस सारी पृथ्‍वी को त्‍याग सकते हैं, किंतु धर्म को नहीं छोड़ सकते । इन पाण्‍डुनन्‍दन ने स्‍वयं कहा है कि मैं अपने को हार गया; अत: मैं इस प्रश्‍न का विवेचन नहीं कर सकता। यह शकुनि मनुष्‍यों में द्यूतविद्या का अद्वितीय जानकर है । इसी ने कुन्‍तीनन्‍दन युधिष्ठिर प्रेरित करके उनके मन में तुम्‍हें दाँव पर रखने की इच्‍छा उत्‍पन्‍न की है, परंतु युधिष्ठिर इसे शकुनि का छल नहीं मानते है; इसीलिये मैं तुम्‍हारे इस प्रश्‍न का विवेचन नहीं कर पाता हूँ। द्रौपदीने कहा—जूआ खेलने में निपुण, अनार्य,दुषृात्‍मा, कपटी तथा द्यूत प्रेमी धूतों ने राजा युधिष्ठिर को सभा में बुलाकर जूए का खेल आरम्‍भ कर दिया । इन्‍हें जूआ खेलने का अधिक अभ्‍यास नहीं है । फिर इनके मन में जूए की इच्‍छा क्‍यों उत्‍पन्‍न की गई ? जिनके हृदय की भावना शुद्ध नहीं है, जो सदा छल और कपट में लगे रहते हैं, उन समस्‍त दुरात्‍माओं ने मिलकर इन भोले-भोले कुरू-पाण्‍डव-शिरोमणि महाराज युधिष्ठिर को पहले जूए में जीत लिया है, तत्‍पश्‍चात् ये मुझे दाँव पर लगाने के लिये विवश किये गये हैं। ये कुरूवंशी महापुरूष जो सभा में बैठे हुए हैं, सभी पुत्रों और पुत्र वधुओं के स्‍वामी हैं (सभी के घर में पुत्र और पुत्र-वधुएँ है), अत: ये सब लोग मेरे कथन पर अच्‍छी तरह विचार करके इस प्रश्‍न का ठीक-ठीक विवेचन करें। वह सभा नहीं है जहाँ वृद्ध पुरूष न हों, वे वृद्ध नहीं हैं जो धर्म की बात न बतावें, वह धर्म नहीं है जिसमें सत्‍य न हो और वह सत्‍य नहीं है जो छल से युक्‍त हो। वैशम्‍पायनजी कहते हैं—जनमेजय ! इस प्रकार द्रौपदी करूणस्‍वर में बोलकर रोती हुई अपने दीन पतियों की ओर देखनी लगी । उस समय दु:शासन ने उसके पति कितने ही अप्रिय कठोर एवं कटुवचन कहे। कृष्‍णा राजस्‍वलावस्‍था मे घसीटी जा रही थी, उसके सिर का कपड़ा सरक गया था, वह इस तिरस्‍कार के योग्‍य कदापि नहीं थी । उसकी ययह दुरवस्था देखकर भीमसेन को बड़ी पीड़ा हुई । वे युधिष्ठिर की ओर देख कर अत्‍यन्‍त कुपित हो उठे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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