महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 23 श्लोक 1-19

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तेईसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : तेईसवाँ अध्याय: श्लोक 1- 15 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन् ! निद्रा विजयी अर्जुन के ऐसा कहने पर भी कुरूकुल नन्दन पाण्डुपुत्र कुन्ती कुमार युधिष्ठिर जब कुछ न बोले, तब द्वैपायन व्यास जी ने इस प्रकार कहा।

व्यास जी बोले-सौम्य युधिष्ठिर ! अर्जुन ने जो बात कही है, वह ठीक है। शास्त्रोक्त परम धर्म गृहस्थ-आश्रम का ही आश्रय लेकर टिका हुआ है। धर्मज्ञ युधिष्ठिर ! तुम शास्त्र के कथनानुसार विधि पूर्वक स्वधर्म का ही आचरण करो। तुम्हारे लिये गृहस्थ-आश्रम को छोड़कर वन में जाने का विधान नहीं है। पृथ्वीनाथ ! देवता, पितर, अतिथि और भृत्यगण सदा गृहस्थ का ही आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करते हैं; अतः तुम उनका भरण-पोषण करो। जनेश्वर ! पशु, पक्षी तथा अन्य प्राणी भी गृहस्थों से ही पालित होते हैं; गृहस्थ ही सबसे श्रेष्ठ है। युधिष्ठिर ! चारों आश्रमों में यह गृहस्थाश्रम ही ऐसा है, जिसका ठीक-ठीक पालन करना बहुत कठिन है। जिनकी इन्द्रियाँ दुर्बल हैं, उनके द्वारा गृहस्थ-धर्म का आचरणर दुष्कर है। तुम अब उसी दुष्कर धर्म का पालन करो। तुम्हें वेद का पूरा-पूरा ज्ञान है, तुमने बड़ी भारी तपस्या की है। इस लिये अपने पिता-पितामहों के इस राज्य का भार तुम्हें एक धुरन्धर पुरुष की भाँति वहन करना चाहिये। महाराज! तप, यज्ञ, विद्या, भिक्षा, इन्द्रियसंयम, ध्यान, एकान्त-वास का स्वभाव, संतोष और यथाशक्ति शास्त्रज्ञान- ये सब गुण तथा चेष्टाएँ ब्राह्मणों के लिये सिद्धि प्रदान करने वाली हैं। प्रजानाथ ! अब मैं पुनः क्षत्रियों के धर्म बता रहा हूँ, यद्यपि वह तुम्हें भी ज्ञात है। यज्ञ, विद्याभ्यास, शत्रुओं पर चढ़ाई करना, राजलक्ष्मी की प्राप्ति से कभी संतुष्ट न होना, दुष्टों को दण्ड देने के लिये उद्यत रहना, क्षत्रिय तेज से सम्पन रहना, प्रजा की सब ओर से रक्षा करना, समस्त वेदों का ज्ञान प्राप्त करना, तप, सदाचार, अधिक द्रव्योपार्जन और सत्पात्रको दान देना- ये सब राजाओं के कर्म हैं, जो सुन्दर ढंग से किये जाने पर उनके इहलोक और परलोक दोनों को सफल बनाते हैं, ऐसा हमने सुना है। कुन्तीनन्दन ! इनमें भी दण्ड धारण करना राजा का प्रधान धर्म बताया जाता है; क्यों कि क्षत्रिय में बल की नित्य स्थितिहै और बल में ही दण्ड प्रतिष्ठित होता है। राजन् ! ये विद्याएँ (धार्मिक क्रियाएँ) क्षत्रियों को सदा सिद्धि प्रदान करने वाली हैं। इस विषय में बृहस्पति जी ने इस गाथा का भी गान किया है। ’जैसे साँप बिल में रहने वाले चूहे आदि जीवों को निगल जाता है; उसी प्रकार विरोध न करने वाले राजा और पर्देश में न जाने वाले ब्राह्मण- इन दो व्यक्तियों को भूमि निगल जाती है। सुना जाता है कि राजर्षि सुद्युम्न ने दण्ड धारण के द्वारा ही प्रचेता कुमार दक्ष के समान परम सिद्धि प्राप्त कर ली।

युधिष्ठिर ने पूछा- भगवन् ! पृथिवीपति सुद्युम्न ने किस कर्म से परम सिद्धि प्राप्त कर ली थी। मैं उन नरेश का चरित्र सुनना चाहता हूँ।

व्यास जी ने कहा- युधिष्ठिर ! इस विषय में लोग इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं- शंख और लिखित नाम वाले दो भाई थे। दोनों ही कठोर व्रत का पालन करने वाले तपस्वी थे। बाहुदा नदी के तट पर उन दोनों के अलग-अलग परम सुन्दन आश्रम थे, जो सदा फल-फूलों से लदे रहने वाले वृक्षों से सुशोभित थे। एक दिन लिखित शंख के आश्रम पर आये। दैवेच्छा से शंख भी उसी समय आश्रम से बाहर निकल गये थे। भाई शंख के आश्रम में जाकर लिखित ने खूब पके हुए बहुत से फल तोड़कर गिराये और उन सब को लेकर वे ब्रह्मर्षि बड़ी निश्चिन्तता के साथ खाने लगे। वे खा ही रहे थे कि शंख भी आश्रम पर लौट आये। भाई को फल खाते देख शंख ने उनसे पूछा-’तुमने ये फल कहाँ से प्राप्त किये हैं और किस लिये तुम इन्हें खा रहे हो ? लिखित ने निकट जाकर बड़े भाई को प्रणाम किया और हँसते हुए-से इस प्रकार कहा- ’भैया! मैंने ये फल यहीं से लिये हैं,। तब शंख ने तीव्र रोष में भरकर कहा- ’तुमने मुझसे पूछे बिना स्वयं ही फल लेकर यह चोरी की है। ’अतः तुम राजा के पास जाओ और अपनी करतूत उन्हें कह सुनाओ। उनसे कहना-’नृपश्रेष्ठ ! मैंने इस प्रकार बिना दिये हुए फल ले लिये हैं, अतः मुझे चोर समझकर अपने धर्म का पालन कीजिये। नरेश्वर! चोर के लिये जरे निसत दण्ड हो, वह शीघ्र मुझे प्रदान कीजिये’’। महाबाहो! बड़े भाई के ऐसा कहने पर उनकी आज्ञा से कठोर व्रत का पालन करने वाले लिखित मुनि राजा सुद्युम्न के पास गये। सुद्युम्न ने द्वारपालों से जब यह सुना कि लिखित मुनि आये हैं तो वे नरेश अपने मन्त्रियों के साथ पैदल ही उनके निकट गये।


इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में व्यास वाक्य विषयक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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