महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 25 श्लोक 22-36
पच्चीसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)
’संसार में केवल दुःख ही है, सुख नहीं, अतः दुःख ही उपलब्ध होता है। तृष्णाजनित पीड़ा से दुःख और दुःख की पीड़ा से सुख होता है अर्थात् दुःख से आर्त हुए मनुष्य को ही उसके न रहने पर सुख की प्रतीति होती है। ’सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख आता है। कोई भी न तो सदा दुःख पाता है और न निरन्तर सुख ही प्राप्त करता है। ’कभी दुःख के अन्त में सुख और कभी सुख के अन्त में दुःख भी आता है; जो नित्य सुख की इच्छा रखता हो; वह इन दोनों का परित्याग कर दें; क्यों कि दुःख सुख के अन्त में अवश्यम्भावी है, वैसे ही सुख भी दुःख के अन्त में अवश्यम्भावी है। ’ जिसके कारय शोक और बढ़ा हुआ ताप होता हो अथवा जो आयास का भी मूल कारण हो, वह अपने शरीर का एक अंग भी हो तो भी उसको त्याग देना चाहिये। ’सुख हो या दुःख, प्रिय हो अथवा अप्रिय, जब जो कुछ प्राप्त हो, उस समय उसे सहर्ष अपनावे। अपने हृदय से उसके सामने पराजय न स्वीकार करे (हिम्मत न हारे। ’ प्रिय मित्र! स्त्री अथवा पुत्रों का थोड़ा सा भी अप्रिय कर दो, फिर स्वयं समझ जाओगे कि कौन किस हेतु से किस तरह किसके साथ कितना सम्बन्ध रखता है? ’संसार में जो अत्यन्त मूर्ख हैं, अथवा जो बुद्धि से परे पहुँच गये हैं, वे ही सुखी होते हैं; बीचवाले लोग कष्ट ही उठाते हैं,। युधिष्ठिर! लोक के भूत और भविष्य तथा सुख एवं दुःख को जानने वाले धर्मवेत्ता महाज्ञानी सेना जित्ने ऐसा ही कहा है। जिस किसी भी दुःख से है, वह कमी सुखी नहीं हो सकता; क्यों कि अन्त नहीं है। एक दुःख से दूसरा दुःख होता ही रहता है। सुख-दुःख, उत्पत्ति-विनाश, लाभ-हानि और जीवन मरण- ये समय-समय पर क्रम से प्राप्त होते हैं। इसलिये धीर पुरुष इनके लिये हर्ष और शोक न करें। राजा के लिये संग्राम में जूझना ही यज्ञ की दीक्षा लेना बतया गया है। राज्य की रक्षा करते हुए रण्डनीति में भली-भाँति प्रतिष्ठित होना ही उसके लिये योगसाधन है तथा यज्ञ में दक्षिणा रूप से धन का त्याग एवं उत्तम रीति से दान ही राजा के लिये त्याग है। ये तीनों कर्म राजा को पवित्र करने वाले हैं, ऐसा समझे। जो राजा अहंकार छोड़कर बुद्धिमानी से नीति के अनुसार राज्य की रक्षा करता है, स्वभाव से ही यज्ञ अनुष्ठान में लगा रहता है और धर्म की रक्षा को दृष्टि में रखकर सम्पूर्ण लोकों में विचरता है, वह महामनस्वी नरेश देहत्याग के पश्चात् देवलोक में आनन्द भोगता है। जो संग्राम विजय, राष्ट्र का पालन, यज्ञ में सोमर सका पान, प्रजाओं की उन्नति तथा प्रजावर्ग के हित के लिये युक्तिपूर्वक दण्ड धारण करते हुए यु़द्ध में मृत्यु को प्राप्त होता है, वह देव लोक में आनन्द का भागी होता है। सम्यक् प्रकार से वेदों का ज्ञान, शास्त्रों का अध्ययन, राज्य का ठीक-ठीक पालन तथा चारों वर्णों का अपने-अपने धर्म में स्थापन करके जो अपने मन कमो पवित्र कर चुका है, वह राजा देवलोक में सुखी होता है। स्वर्ग लोक में रहने पर भी जिसके चरित्र को नगर और जनपद के मनुष्य एवं मन्त्री मस्तक झुकाते हैं, वही राजा समस्त नरपतियों में सबसे श्रेष्ठ है।
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