महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 28 श्लोक 36-51

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अट्ठाईसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : अट्ठाईसवाँ अध्याय: श्लोक 26- 44 का हिन्दी अनुवाद


कोई इस सेतु का उल्लघंन करता दिखायी नहीं देता अथवा पहले भी किसी ने इसका उल्लंघन किया हो, ऐसा देखने में नहीं आया। कोई-कोई पुरुष जो (तपस्या आदि प्रबल पुरुषार्थ के द्वारा) दैव के नियन्त्रण में रहने योग्य नहीं है, वह पूर्वोत्त सेतु का उल्लंघन करता भी दिखायी देता है। इस जगत् में धनवान् मनुष्य भी जवानी में ही नष्ट होता दिखायी देता है और क्लेश में पड़ा हुआ दरिद्र भी सौ वर्षों तक जीवित रहकर अत्यन्त वृद्धावस्था में मरता देखा जाता है। जिनके पास कुछ नहीं है, ऐसे दरिद्र भी दीर्घ जीवी देखे जाते हैं और धनवान् कुल में उत्पन्न हुए मनुष्य भी कीट पतंगों के समान नष्ट होते रहते हैं। जगत् में प्रायः धनवानों को खाने और पचाने की शक्ति ही नहीं रहती है और दरिद्रों में पेट में काठ भी पच जाते हैं। दुरात्मा मनुष्य काल से पे्ररित होकर यह अभिमान करने लगता है कि मैं यह करूँगा। तत्पश्चात् असंतोष वश उसे जो-जो अभीष्ट होता है, उस पापपूर्ण कृत्य को भी वह करने लगता है। विद्वान् पुरुष शिकार करने, जुआ खेलने, स्त्रियों के संसर्ग में रहने और मदिरा पीने के प्रसंगों की बड़ी निन्दा करते हैं, परंतु इन पाप-कर्मों में अनेक शास्त्रों के श्रवण और अध्ययनसे सम्पन्न पुरुष भी संलग्न देखे जाते हैं। इस प्रकार काल के प्रभाव से समस्त प्राणी इष्ट और अनिष्ट पदार्थां को प्राप्त करते रहते हैं, इस इष्ट और अनिष्टकी प्राप्ति का अदृष्ट के सिवा दूसरा कोई कारण नहीं दिखायी देता। वायु, आकाश, अग्नि,चन्द्रमा, सूर्य, दिन, रात, नक्षत्र, नदी और पर्वतों को काल के सिवा कौन बनाता और धारण करता है? सर्दी,गर्मी और वर्षा का चक्र भी काल से ही चलता है। नरश्रेष्ठ! इसी प्रकार मनुष्यों के सुख-दुःख भी काल से ही प्राप्त होते हैं। वृद्धावस्था और मृत्यु के वश में पडे़ हुए मनुष्य को औषध, मन्त्र, होम और जप भी नहीं बचा पाते हैं। जैसे महासागर में एक काठ एक ओर से और दूसरा दूसरी ओर से आकर दोनों थोड़ी देर के लिये मिल जाते हैं तथा मिलकर फिर बिछुड़ भी जाते हैं, इसी प्रकार यहाँ प्राणियों के संयोग-वियोग होते रहते हैं। जगत् में जिन धनवान् पुरुषों की सेवा में बहुत-सी सुन्दरियाँ गीत और वाद्यों के साथ उपस्थित हुआ करती हैं और जो अनाथ मनुष्य दूसरों के अन्न पर जीवन-निर्वाह करते हैं, उन सबके प्रति काल की समान चेष्टा होती है। हमने संसार में अनेक बार जन्म लेकर सहस्त्रों माता-पिता और सैकड़ों स्त्री-पुत्रों के सुख का अनुभव किया है; परंतु अब वे किसके हैं अथवा हम उनमें से किसके हैं? इस जीव का न तो कोई सम्बन्धी होगा और न यह किसी का सम्बन्धी है। जैसे मार्ग में चलने वालों को दूसरे राहगीरों का साथ मिल जाता है, उसी प्रकार यहाँ भाई-बन्धु, स्त्री-पुत्र और सुहृदों का समागम होता है। अतः विवेकी पुरुष को अपने मनमें यह विचार करना चाहिये कि ’मैं कहाँ हूँ, कहाँ जाऊँगा, कौन हूँ, यहाँ किस लिये आया हूँ और किस लिये किसका शोक करूँ?’ यह संसार चक्र के समान घूमता रहता है। इसमें प्रियजनों का सहवास अनित्य है। यहाँ भ्राता, मित्र, पिता और माता आदि का साथ रास्ते में मिले हुए बटोहियों के समान ही है। यद्यपि विद्वान् पुरुष कहते हैं कि परलोक न तो आँखों के सामने है और न पहले का ही देखा हुआ है, तथापि अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले पुरुष को शास्त्रों की आज्ञा का उल्लंघन न करके उसकी बातों पर विश्वास करना चाहिये। विज्ञ पुरुष पितरों का श्राद्ध और देवताओं का यजन करे। धर्मानुकूल कार्यां का अनुष्ठान और यज्ञ करे तथा विधि पूर्वक धर्म, अर्थ और काम का भी सेवन करें। जिसमें जरा और मृत्युरूपी बडे़-बडे़ ग्राह पड़े हुए हैं, उस गम्भीर काल समुद्र में यह सारा संसार डूब रहा है, किंतु कोई इस बात को समझ नहीं पाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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