महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 57 श्लोक 1-16

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सत्तावनवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : सत्तावनवाँ अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

राजा के धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्ताव का वर्णन

भीष्म जी कहते है- युधिष्ठिर! राजा को सदा ही उधोगशील होना चाहिये। जो उद्योग छोडकर स्त्री की भाँति बेकार बैठा रहता है, उस राजा की प्रशंसा नहीं होती है। प्रजानाथ! इस विषय में भगवान शुक्राचार्य ने एक श्लोक कहा है, उसे मैं बता रहा हूँ। तुम यहाँ एकाग्रचित होकर मुझसे उस श्लोक को सुनो। जैसे साँप बिल में रहने वाले चूहों को निगल जाता है, उसी प्रकार दूसरों से लडाई न करने वाले राजा तथा विद्याध्ययन आदि के लिये घर छोडकर अन्यत्र न जाने वाले ब्राह्माण को पृथ्वी निगल जाती है ( अर्थात् वे पुरूषार्थ साधन किये बिना ही मर जाते है )। अतः नरश्रेष्ठ! तुम इस बात को अपने हद्य में धारण कर लो, जो संधि करने के योग्य हों, उनसे संधि करो और जो विरोध के पात्र हों, उनका डटकर विरोध करो। राज्य के सात अंग है- राजा, मंत्री, मित्र, खजाना, देश, दुर्ग और सेना। जो इन सात अंगों से युक्त राज्य के विपरित आचरण करे, वह गुरू हो या मित्र, मार डालने के ही योग्य है। राजेन्द्र! पूर्वकाल में राजा मरूत्त ने एक प्राचीन श्लोक का गान किया था, जो बृहस्पति के मतानुसार राजा के अधिकार के विषय में प्रकाश डालता है। घमंड मेंभरकर कर्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान न रखने वाला तथा कुमार्ग पर चलने वाला मनुष्य यदि अपना गुरू हो तो उसे भी दण्ड देने का सनातन विधान है। बाहु के पुत्र बुद्धिमान राजा सगर ने तो पुरवासियों के हित की इच्छा से अपने ज्येष्ठ पुत्र असमंजाका भी त्याग कर दिया था। नरेश्वर! असमंजा पुरवासियों के बालकों को पकडकर सरयू नदी में डुबा दिया करता; अतः उसके पिता ने उसे दुत्कारकर घर से बाहर निकाल दिया। उद्दालक ऋषि ने अपने प्रिय पुत्र महातपस्वी श्वेतकेतु को केवल इस अपराध से त्याग दिया कि वह ब्रह्नाणों के साथ मिथ्या एंव कपटपुर्ण व्यवहार करता था। अतः इस लोकमें प्रजावर्ग को प्रसत्र रखना ही राजाओं का सनातन धर्म है। सत्य की रक्षा और व्यवहार की सरलता ही राजोचित कर्तव्य है। दुसरों के धन का नाश न करे। जिसको जो कुछ देना हो, उसे वह समय पर दिलाने की व्यवस्था करे। पराक्रमी, सत्यवादी और क्षमाशील बना रहे- ऐसा करनेवाला राजा कभी पथभ्रष्‍टनहीं होता। जिसने अपने मन को वश में कर लिया है, क्रोध को जीत लिया है तथा शस्त्रों के सिद्धान्त का निश्चयात्मक ज्ञान प्राप्त कर लिया है, जो धर्म, अर्थ काम और मोक्ष के प्रयत्न में निरन्तर लगा रहता है, जिसे तीनों वेदों का ज्ञान है तथा जो अपने गुप्त विचारों को दूसरों पर प्रकट नहीं होने देता है, वही राजा होने योग्य है, प्रजा की रक्षा न करने से बढकर राजाओं के लिये दुसरा कोई पाप नहीं है। राजा को चारों वर्णों के धर्मों की रक्षा करनी चाहिये, प्रजा को धर्मसंकरता से बचाना राजाओं का सनातन धर्म है। राजा किसी पर भी विश्वास न करे। विश्वासनीय व्यक्ति का भी अत्यन्त विश्वास न करे। राजनीति के छः गुण होते हैं- सन्धि, विग्रह यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय मन्त्री, राष्ट्र, दुर्ग (किला), खजाना और दण्ड- ये पाँच प्रकृति कहे गये है। ये ही अपने और शत्रु पक्ष के मिलाकर दशवर्ग कहलाते है, यदि दोनों के मन्त्री आदि समान हों तो ये स्थान के हेतु होते है। अर्थात् दोनों पक्ष की स्थिति कायम रहती है, अगर अपने पक्ष में इनकी अधिकता हो तो ये वृद्धि के साधक होते है और कमी हो तो क्षय के कारण बनते है।[१]। इन सबके गुण-दोषों का अपनी बुद्धि द्वारा सदा निरीक्षण करे। शत्रुओं के छिद्र देखने वाले राजा की सदा ही प्रशंसा की जाती है। जिसे धर्म, अर्थ और काम के तत्व का ज्ञान है तथा जिसने शत्रुओं की गुप्त बातों को जानने और उनके मन्त्री आदि को फोडने के लिये गुप्तचर लगा रखा है, वह भी प्रशंसा के ही योग्य है। राजा को उचित है कि वह सदा अपने कोषागार को भरा-पूरा रखने का प्रयत्न करता रहे, उसे न्याय करने में यमराज और धन-संग्रह करने में कुबेर के समान होना चाहिए। वह स्थान, वृद्धि तथा क्षय के हेतुभूत दस*वर्गो का ज्ञान रखे। जिनके भरण- पोषण का प्रबन्ध न हो उनका पोषण राजा स्वयं करे और उसके द्वारा जिनका भरण-पोषण चल रहा हो, उन सबकी देखभाल रखे। राजा को सदा प्रश्न्नमुख रहना और मुस्कराते हुए वार्तालाप करना चाहिए। राजा को वृद्ध पुरुषों की उपासना ( सेवा या संग ) करनी चाहिए, वह आलस्य को जीते और लोलुपता का परित्याग करे। सत्पुरुषांे के व्यवहार में मन लगावे। संतुष्ट होने योग्य स्वभाव बनाये रखे। वेश-भूषा ऐसी रखे, जिससे वह देखने में अत्यन्त मनोहर जान पडे़।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यदि शत्रु पर चढाई की जाय और वह अपने से बलवान सिद्ध हो तो उससे मेल कर लेना सन्धि नामक गुण है। यदि दोनों में समान बल हो तो लडाई जानी रखना विग्रह है। यदि शत्रु दुर्बल हो तो उस अवस्था में उसके दुर्ग आदि पर जो आक्रमण किया जाता है उसे यान कहते है। यदि अपने ऊपर शत्रु की ओर से आक्रमण हो और शत्रु का पक्ष प्रबल जान पडें तो उस समय अपने को दुर्ग आदि में छिपाये रखकर जो आत्मरक्षा की जाती है, वह आसन कहलाता है। यदि चढाई करने वाला शत्रु मध्यम श्रेणी का हाते द्वैधीभाव का सहारा लिया जाता है। उसमें ऊपर से दूसरा भाव दिखाया जाता है और भीतर दूसरा ही भाव रखा जाता है। जैसे आधी सेना दुर्ग में रखकर आत्मरक्षा करना और आधी को भेजकर शत्रुओं के अन्न आदि सामग्री पर कब्जा करना आदि कार्य द्वैधीभाव नीति के अन्तर्गत है। आक्रमणकारी से पीडित होने पर किसी मित्र राजा का सहारा लेकर उसके साथ लडाई छेडना समाश्रय कहलाता है। मन्त्री, राष्ट्र, दुर्ग (किला), खजाना और दण्ड- ये पाँच प्रकृति कहे गये है। ये ही अपने और शत्रु पक्ष के मिलाकर दशवर्ग कहलाते है, यदि दोनों के मन्त्री आदि समान हों तो ये स्थान के हेतु होते है। अर्थात् दोनों पक्ष की स्थिति कायम रहती है, अगर अपने पक्ष में इनकी अधिकता हो तो ये वृद्धि के साधक होते है और कमी हो तो क्षय के कारण बनते है।

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