महाभारत वन पर्व अध्याय 213 श्लोक 13-24
त्रयोदशाधिकद्विशततम (213) अध्याय: वन पर्व (समस्या पर्व )
इस जठरानल का स्थान नाभि से लेकर पायु तक है। इसी को ‘गुदा’ कहते हैं। उस गुदा से देहधारियों के समस्त प्राणों में स्त्रोंत (नाडी मार्ग) प्रकट होते हैं । गुदा से प्राण अग्रि के वेग को लेकर गुदान्त में टकराता है, फिर वहां से ऊपर को उठकर वह जठराग्रि को भी ऊपर उठाता है । नाभि के नीचे पक्वाशय (पके हुए भोजन का स्थान ) है और ऊपर आमाशय (कच्चे भोजन का स्थान) हैं । शरीर में स्थित समस्त प्राण नाभि में ही प्रतिष्ठित हैं-वही उनका केन्द्र स्थान है । नाडियां ह्दय से नीचे और ऊपर इधर-उधर फैली हुई हैं। वे दस प्राण वायुओं से प्रेरित हो शरीर के सब भागों में अन्न के रसों को पहुंचाती रहती हैं । जिन्होंने समस्त क्लेशों को जीत लिया है, जो समदर्शी और धीर हैं, जिन्होंने (सुषुम्णा नाड़ी के द्वारा ) अपने प्राण मय आत्मा को मस्तक (वर्ती सहस्त्रार चक्र) में ले जाकर स्थापित किया है, उन योगियों के लिये यह (मस्तक से लेकर पायुतक का सुषुम्णामय) मार्ग है, जिससे वे उस परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार समस्त जीवात्माओं के शरीर में ये प्राण वायु और अपानवायु व्याप्त हैं । ब्रह्मन् । वे प्राण और जापान जठरानल के साथ रहते हैं । प्राण को आत्मा में स्थित जानिये। आत्मा एकादश इन्द्रिय रुप विकारों से युक्त, षोडश कलाओं के समूह से सम्पन्न, शरीर को धारण करने वाला तथा नित्य है। उसने योग बल से मन बुद्धि को अपने अधीन कर रखा है। इस प्रकार आत्मा के सम्बन्ध में आपको जानना चाहिये । जैसे बटलोई में आग रखी गयी हो, उसी प्रकार पूर्वोक्त कला-समूह रुप शरीर में प्रकाश स्वरुप शरीर में प्रकाश स्वरुप आत्मा सदा विद्युमान रहता है। आप उसे जानिये। वह नित्य तथा योग शक्ति से मन-बुद्धि को अपने अधीन रखने वाला है । जैसे कमल के पत्ते पर पड़ी हुई जल की बूंद निर्लिप्त होती है, उसी प्रकार ये आत्मदेव कलात्मक शरीर में असगड़ भाव से स्थित हैं। वे क्षेत्रज्ञ हैं, आप उन्हें जानिये। वे योग से अपने मन और बुद्धि पर अधिकार प्राप्त करने वाले तथा नित्य हैं । ब्रह्मन् । आप यह जान लें कि सत्वगुण (मोह) – ये जीवात्मक हैं अर्थात् जीवात्मा के अन्त: करण के विकार हैं, जीव आत्मा का गुण (सेवक) है और परमात्म स्वरुप है । भाव यह कि परमात्मा को ही यहां आत्मा कहा गया है । शरीर-तत्व के ज्ञाता महात्मा पुरुष जड शरीर आदि को जीव का भोग्य बताते हैं। वह जीव शरीर के भीतर रहकर स्वयं चेष्टा शील होता है तथा शरीर और इन्द्रिय आदि सबको चेष्टाओं में लगाता है। जिन्होंने सातों भुवनों का निर्माण किया है, उन परमात्मा को ज्ञानी पुरुष जीवात्मा से उत्कृष्ट बताते हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण भूतों के आत्मा परमेश्वर समस्त प्राणियों के भीतर प्रकाशित हो रहे हैं। ज्ञानी महात्मा अपनी श्रेष्ठ एवं सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा उन्हें देख पाते हैं । मनुष्य अपने चित्त की पवित्रता के द्वारा ही समस्त शुभा शुभ कर्मो को नष्ट (फल देने में असमर्थ) कर देता है। जिसका अन्त: करण प्रसन्न (पवित्र) है, वह अपने आप में ही स्थित होकर अक्षय सुख (मोक्ष) का भागी होता है । जैसे भोजन आदि से तृप्त हुआ मनुष्य सुख से सोता है और जैसे वायु रहित स्थान में चतुर मनुष्य के द्वारा जलाया हुआ दीप निश्चल भाव से प्रकाशित होता है; ऐसा ही लक्षण चित्त की पवित्रता का भी है ।
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