महाभारत वन पर्व अध्याय 120 श्लोक 1-11

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विं‍शत्‍यधि‍कशततम (120) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

महाभारत: वन पर्व: विं‍शत्‍यधि‍कशततम अध्‍याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद

सात्‍यकि‍ के शौर्यपूर्ण उद्धार तथा युधि‍ष्‍ठि‍र द्वारा श्रीकृष्‍ण के वचनों का अनुमोदन एवं पाण्‍डवों का पयोष्‍णी नदी के तट पर नि‍वास

सात्‍यकि‍ ने कहा- बलरामजी ! यह समय बैठकर वि‍लाप करने का नहीं है । अब आगे जो कुछ करना है, उसी को हम सब लोग मि‍लकर करें । यद्यपि‍ महाराज युधि‍ष्‍ठि‍र हम से कुछ नहीं कहते हैं तो भी हमें अब व्‍यर्थ समय न बि‍ताकर कौरवों को उचि‍त उत्‍तर देना चाहिये । इस संसार में जो लोग सनाथ है। जि‍नके बहुत से सहायक है- वे स्‍वयं कोई कार्य आरम्‍भ नहीं करते । उनके सभी कार्यों में वे सहायक एवं सुदृढ़ ही सहयोगी होते हैं, जैसे ययाति‍ के उद्धार-कार्य में शि‍वि‍ आदि‍ उनके नाति‍यों ने योगदान कि‍या था । बलरामजी ! जगत जि‍नके कार्य उनके सहायक अपने ही वि‍चार प्रारम्‍भ करते हैं, वे पुरूषश्रेष्‍ट सनाथ माने जाते हैं । वे अनाथ की भांति‍ कभी कष्‍ट में नहीं पड़ते । आप दोनों भाई बलराम और श्रीकृष्‍ण, मेरे सहि‍त ये प्रद्युम्‍न और साम्‍ब सब के सब मौजुद हैं । इन त्रि‍भुवन पति‍यों से मि‍लकर भी ये कुन्‍ती के पुत्र अभी तक अपने भाइयों के साथ वन में क्‍यों नि‍वास करते हैा । उत्‍तम तो यह है कि‍ आज ही यदुवंशि‍यों की सेना नाना प्रकार के प्रचुर अस्‍त्र-शस्‍त्र और वि‍चि‍त्र कवच धारण करके युद्ध के लि‍ए प्रस्‍थान करें । धृतराष्‍ट्र दुर्योधन वृष्‍णि‍वंशि‍यों के पराक्रम से पराजि‍त हो बन्‍धु-बान्‍ध्‍वों सहि‍त यमलोक चला जाये । बलरामजी ! भगवान श्रीकृष्‍ण अलग खड़े रहे, केवल आप चाहे तो समूची पृथ्‍वी को भी अपनी क्रोधाग्‍नि‍ की लपटों मे लपेट सकते हैा जैसे देवराज इन्‍द्र वे वृत्रासुर का वध कि‍या था, उसी प्रकार आप भी दुर्योधन को उसके सगे सम्‍बन्‍धि‍यों सहि‍त मार डालि‍यें । जो मेरे भाई, सखा, गुरू है, जो भगवान श्रीष्‍कृष्‍ण के आत्‍मतुल्‍य सुदृद हैं, वे कुन्‍तीकुमार अर्जुन भी अलग रहें। मनुष्‍य जि‍स उद्देश्‍य से अच्‍छे पुत्र की और गुरू प्रति‍कुल न बोलने वाने शि‍ष्‍य की कामना करते हैं, उसे सफल करने का समय आ गया हैा । जि‍सके लि‍ये सुयोग्‍य शि‍ष्‍य या पुत्र उत्‍तम अस्‍त्र शस्‍त्र उठाता है तथा युद्ध में श्रेष्‍ठ एवं अपार पराक्रम कर दि‍खाता हैं, उसकी पर्ति‍ का यही अवसर है। मैं संग्रामभूमि‍ में अपने उत्‍तम आयुधों द्वारा शत्रुओं की सारी अस्‍त्र वर्षा को नष्‍ट करके उनके समस्‍त सैनि‍कों को परास्‍त कर दूंगा । बलरामजी ! सर्प, वि‍ष एवं अग्‍नि‍ के समान भयंकर उत्‍तम बाणों द्वारा शत्रु के सि‍र को धड़ से अलग कर दूंगा; साथ ही उस समरागंण में शत्रुमण्‍डली को मैं बलपूर्वक रौंदकर तीखी तलवार द्वारा उसका मस्‍तक उड़ा दूंगा । तदनन्‍तर उसके समस्‍त सेवकों सहि‍त दुर्योधन और समस्‍त कौरवों को भी मार डालुंगा। राहि‍णीनन्‍दन ! युद्ध में भयानक पराक्रम दि‍खाने वाले योद्धा हर्ष और उत्‍साह में भर कर आज मुझे हाथ में अस्‍त्र लि‍ये पुर्वोक्‍त पराक्रम करते हुए प्रत्‍यक्ष देखें । जैसे प्रलयकालि‍न अग्‍नि‍ सूखे घास की राशि‍ को जलाकर भस्‍म्‍ कर देती है है, उसी प्रकार मैं अकेला ही कौरव दल के प्रधान वीरों का संहार कर डालुंगा और ऐसा करते हुए सब लोग मुझे प्रत्‍यक्ष देखेंगे । प्रद्युम्‍न के छोड़े हुए तीखे बाणों को सहन करने की शक्‍ति‍ कृपाचार्य, द्राणाचार्य, वि‍कर्ण और कर्ण कि‍सी में नहीं है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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