महाभारत वन पर्व अध्याय 214 श्लोक 1-15
चतुर्दशाधिकद्विशततम (214) अध्याय: वन पर्व (समस्या पर्व )
मार्कण्डेयजी कहते हैं-युधिष्ठिर । धर्मव्याध ने जब इस प्रकार पुर्ण रुप से मोक्ष-धर्म का वर्णन किया, तब कौशिक ब्राह्मण अत्यन्त प्रसन्न होकर उससे यों बोला । ‘तात । तुमने मुझ से जो कुछ कहा, यह सब न्याय युक्त है। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि यहां धर्म के विषय में कोई ऐसी बात नहीं दिखायी देती, जो तुम्हें ज्ञात न हो’ । धर्म व्याध ने कहा- विप्रवर । अब मेरा जो प्रत्यक्ष धर्म है, जिसके प्रभाव से मुझे यह सिद्धि प्राप्त हुई है, ब्राह्मण श्रेष्ठ । उसका दर्शन भी दर्शन कर लिजिये । भगवन् । आप धर्म के ज्ञाता हैं, उठिये और शीघ्र घर के भीतर चलकर मेरे माता-पिता का दर्शन कीजिये । कौशिक ब्राह्मण ने भीतर करके देखा-एक बहुत सुन्दर साफ-सुथरा घर था, उसकी दीवारों पर चूने से सफेदी की हुई थी। उसमें चार कमरे थे, वह भवन बहुत प्रिय और मन को लुभा लेने वाला था, ऐसा जान पड़ता था, मानो देवताओं का निवास स्थान हो। देवता भी उसका आदर करते थे । एक ओर सोने के लिये शय्या विछी थी और दूसरी ओर बैठने के लिये आसन रखे गये थे। वहां धूप और दूसरी ओर बैठने के लिये आसन रखे गये थे । वहां धूप और चन्दन, केसर आदि की उत्तम गन्ध फैल रही थी । एक सुन्दर आसन पर धर्मव्याध के माता – पिता भोजन करके संतुष्ट हो बैठै हुए थे। उन दोनों के शरीर पर शवेत वस्त्र शोभा पा रहे थे और पुष्प, चन्दन आदि से उनकी पूजा की गयी थी। धर्मव्याध ने उन, दोनों को देखते ही चरणों में मस्तक रख दिया और पृथ्वी पर पड़कर साष्टागड़ प्रणाम किया । तब बूढ़े माता-पिता ने(स्नेह पूर्वक) कहा-बेटा । उठो। उठो। तुम धर्म के जानकार हो, धर्म तुम्हारी सब ओर से रक्षा करे । हम दोनों तुम्हारे शुद्ध आचार-विचार तथा सेवा से बहुत प्रसन्न हैं। तुम्हारी आयु बड़ी हो । तुमने उत्तम गति, तप, ज्ञान और श्रेष्ठ बुद्धि प्राप्त की है, बेटा। तुम सुपुत्र हो तुमने नित्य नियमपूर्वक समयानुसार हमारा पूजन-आदर-सत्कार किया है । हम इस घर में इस प्रकार सुख से रहते हैं मानो देव लोक में पहुंच गये हों। देवताओं में भी तुम्हारे लिये हम दोनों के सिवा और कोई देवता नहीं है। तुम हमें ही देवता मानते हो। अपने मन को पवित्र एवं संयम में रखने के कारण तुम द्विजो चित शम-दम से सम्पन्न हो । वत्स । मेरे पिता के पितामह और प्रपितामह आदि सभी तुम्हारे इन्द्रिय संयम से सदा प्रसन्न रहते हैं। हम दोनों भी तुम्हारे द्वारा की हुर्इ पूजा-सेवा से बहुत संतुष्ट हैं । तुम मन, वाणी और क्रिया द्वारा कभी हम दोनों की सेवा नहीं छोड़ते । इस समय भी तुम्हारा विचार इसके प्रतिकूल नहीं दिखायी देता । बेटा । जमदग्रिनन्दन परशुराम ने जिस प्रकार अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा पूजा की थी, उसी प्रकार तथा उससे भी बढ़कर तुमने हमारी सब सेवाएं की हैं । तदनन्तर धर्मव्याध ने अपने माता-पिता को उस कौशिक ब्रह्मण का परिचय दिया। तब उन दोनों ने भी स्वागत पूर्वक ब्राह्मण का पूजन किया । ब्राह्मण ने उनके द्वारा की हुई पूजा को स्वीकार करके कृतज्ञता प्रकट की और उनसे पूछा-‘आप दोनों इस घर में अपने सुयोग्य पुत्र तथा सेवकों के साथ सकुशल तो हैं न आप दोनों शरीर से भी सदा नीरोग रहते हैं न ।
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