महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-12

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पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

विविध प्रकार के कर्म् फलोंका वर्णन

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-12 का हिन्दी अनुवाद

उमा ने पूछा- सुरासुरपते! सबकी प्रीति बढ़ाने वाले दरदायक देव! मनुष्यों में ही कितने ही लोग क्लेशशून्य, उपद्रवरहित एवं धन-धान्य से सम्पन्न होकर भाँति-भाँति के भोग भोगते देखे जाते हैं और दूसरे बहुत-से मनुष्य क्लेशयुक्त, दरिद्र एवं भोगों से वंचित पाये जाते हैं। महादेव! मनुष्यलोक में सब लोग समान क्यों नहीं बनाये गये; वहाँ इतनी विषमता क्यों है, यह सुनने के लिये मेरे मन में बड़ा कौतूहल हो रहा है। श्रीमहेश्वर कहते हैं- देवि! जीव जैसा कर्म करता है, वैसा फल पाता है। वह अपने किये हुए का फल स्वयं ही भोगता है, दूसरा कोई उसे भोगने का अधिकारी नहीं है। शुभेक्षणे! जो लोग धर्म और काम से निवृत्त हो लोभी, निर्दयी और प्रायः अपने ही शरीर के पोषक हो जाते हैं, शोभने! ऐसे लोग मृत्यु के पश्चात् जब पुनः जन्म लेते हैं, तब दरिद्र और अधिक क्लेश के भागी होते हैं। इसमें संशय नहीं है। उमा ने पूछा. भगवन्! मनुष्यों में जो लोग धन-धान्य से सम्पन्न हैं, उनमें से भी कितने ही ऐसे हैं, जो सम्पूर्ण भोगों के होने पर भी भोगहीन देखे जाते हैं। वे उन भोगों को क्यों नहीं भोगते, यह मुझे बताने की कृपा करें। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो दूसरों से प्रेरित होकर धर्म करते हैं, स्वेच्छा से नहीं तथा धर्मविषयक श्रद्धा को दूर करके अश्रद्धा से दान या धर्म करते हैं और उसके लिये रोते या पछताते हैं, शोभने! ऐसे लोग जब मृत्यु को प्राप्त होकर फिर जन्म लेते हैं तो धर्म के उन फलों को पाकर कभी भोगते नहीं हैं। केवल खजाने की रक्षा करने वाले सिपाही की भाँति उस धन की रखवाली करते हुए उसे बढ़ाते रहते हैं। उमा ने पूछा- महेश्वर! कितने ही मनुष्य धनहीन होने पर भी भोगयुक्त दिखायी देते हैं। इसका क्या कारण है, यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो धन न होने पर भी सदा दान देने की इच्छा रखते हैं, वे मनुष्य मृत्यु के पश्चात् जब फिर जन्म लेते हैं, तब निर्धन होने के साथ ही भोगयुक्त होते हैं; धर्म के प्रभाव से उनके योगक्षेम की व्यवस्था होती रहती है। अतः धर्म और दान का उपदेश करना चाहिये, यह विद्वानों का निश्चय है। देवि! तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर तो दे दिया, अब और क्या सुनना चाहती हो? उमा ने कहा- भगवन्! देवदेवेश्वर! त्रिलोचन! वृषभध्वज! देव! विभो! मनुष्य तीन प्रकार के दिखायी देते हैं। कुछ लोग बैठे-बैठे ही उत्तम स्थान, ऐश्वर्य और विविध भोगों का संग्रह पाकर उनका उपभोग करते हैं। दूसरे लोग यत्नपूर्वक भोगों का संग्रह कर पाते हैं, और तीसरे ऐसे हैं, जो यत्न करने पर भी कुछ नहीं पाते। किस कर्मविपाक से ऐसा होता है? यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- महाभागे! भामिनि! तुम न्यायतः मेरा उपदेश सुनना चाहती हो, अतः सुनो। देवि! दानधर्म में तत्पर रहने वाले जो मनुष्य संसार में दान के सुयोग्य पात्रों का विधिवत् ज्ञान प्राप्त करके अथवा अनुमान से भी उन्हें जानकर दूर से भी स्वयं उनके पास चले जाते है और उन्हें प्रसन्न करके अपनी दी हुई वस्तुएँ उन्हें स्वीकार करवाते हैं, उनके दान आदि कर्म संकेत से ही होते हैं, अतः दान-पात्रों को जनाये बिना ही जो उनके लिये दान की वस्तुएँ दे देते हैं, वे ही पुनर्जन्म में वैसे श्रेष्ठ पुरूष होते हैं तथा वे बिना यत्न के ही उन कर्मों के फलों को प्राप्त कर लेते हैं और पुण्य के भागी होने के कारण बैठे-बैठाये ही सब तरह के भोग भोगते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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