महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-48

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०७:३९, २७ जुलाई २०१५ का अवतरण
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-48 का हिन्दी अनुवाद

शुभाशुभ मानस आदि तीन प्रकार के कर्मो कास्वरुप और उनके फल का एवं मद्द्सेवन के दोषों कावर्णन,आहार-शुद्धि,मांसभक्षण से दोष,मांस न खानेसे लाभ,जीवदया के महत्व,गुरुपूजा कीविधि,उपवास-विधि,ब्र्हमचर्यपालन,तीर्थचर्चा,सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य,अन्न,सुवर्ण, गौभुमि, कन्या और विद्यादान का माहात्म्य , पुण्यतम देशकाल, दिये हुये दान और धर्म की निष्फलता, विविध प्रकार के दान, लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताऔं की पूजा का निरुपण

पुल, कुआँ और पोखरा बनवाने वाला मानव दीर्घायु, सौभाग्य तथा मृत्यु के पश्चात् शुभ गति प्राप्त कर लेता है। जो वृक्ष लगाने वाला तथा छाया, फूल और फल प्रदान करने वाला है, वह मृत्यु के पश्चात् पुण्यलोक पाता है और सबके लिये मिलने के योग्य हो जाता है। जो मनुष्य इस जगत् में नदियों पर जल ले जाने वाले पुरूषों की सुविधा के लिये पुल निर्माण कराता है, वह मृत्यु के पश्चात् उसका पुण्यफल पाता है और सब प्रकार के संकटों से छुटकारा पा जाता है। जो मनुष्य सदा मार्ग का निर्माण करता है, वह संतानवान् होता है। तथा जो जल में उतरने के लिये सीढ़ी एवं पक्के घाट बनवाता है, वह शारीरिक दोष से मुक्त हो जाता है। जो सदा कृपापूर्वक रोगियों को औषध प्रदान करता है, वह रोगहीन और विशेषतः दीर्घायु होता है। जो अनाथों, दीन-दुखियों, अन्धों और पंगु मनुष्यों का पोषण करता है, वह मृत्यु के पश्चात् उसका पुण्यफल पाता और संकट से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य वेदविद्यालय, सभाभवन, धर्मशाला तथा भिक्षुओं के लिये आश्रम बनाता है, वह मृत्यु के पश्चात् शुभ फल पाता है। जो मानव उत्तम भक्ष्य-भोज्यसम्बन्धी गुणों से युक्त तथा नाना प्रकार की आकृतिवाली भाँति-भाँति की रमणीय गोशालाओं का सदैव निर्माण करता है, वह मृत्यु के पश्चात् उत्तम जन्म पाता और रोगमुक्त होता है। इस प्रकार भाँति-भाँति के द्रव्यों का दान करने वाला मनुष्य पुण्यफल का भागी होता है। बुद्धि, आयुष्य, आरोग्य, बल, भाग्य, आगम तथा रूप- इन सात भागों में प्रकट होकर मनुष्य का पुण्य कर्म अवश्य अपना फल देता है। उमा ने कहा- भगवन्! देवदेवेश्वर! लौकिक और वैदिक यज्ञ को उत्तम बताया जाता है। अतः इस विषय का मुझसे वर्णन कीजिये। श्रीमहेश्वर बोले-देवि! देवताओं की जो पूजा है, वह यज्ञों के ही अन्तर्गत है। यज्ञों का वेदों में वर्णन है और वेद ब्राह्मणों के साथ हैं। प्रिये! स्वर्गलोग में या पृथ्वी पर जो द्रव्य दृष्टिगोचर होता है, इस सबकी सृष्टि विधाता द्वारा लोकहित की कामना से यज्ञ के लिये की गयी है, ऐसा समझो। ऐसा समझकर जो द्विज सदा अपनी स्त्री के साथ रहकर यज्ञ-कर्म करता है, वह ब्रह्मकर्म में तत्पर रहने के कारण मृत्यु के पश्चात् पुण्यलोकों को प्राप्त कर लेता है। देवि! वह ब्रह्म(वेद) सदा ब्राह्मणों में ही स्थित है, अतः शास्त्र-विधि के अनुसार ब्राह्मणों द्वारा किया हुआ सम्पूर्ण यज्ञकर्म देवताओं को तृप्त करता है। ब्राह्मणों और क्षत्रियों की उत्पत्ति प्रायः यज्ञ के लिये ही मानी गयी है। शुद्ध यजमानों तथा ऋत्विजों द्वारा किये गये वेदवर्णित अग्निष्टोम आदि यज्ञों एवं विशुद्ध द्रव्योपकरणों से यजन करना चाहिये, यह शास्त्र का निश्चय है। इस प्रकार किये गये यज्ञों में देवताओं को संतोष होता है और सम्पूर्ण देवताओं के संतुष्ट होने पर यजमान को यज्ञ का पूरा-पूरा फल मिलता है। यज्ञों द्वारा संतुष्ट किये हुए देवता सम्पूर्ण लोकों की वृद्धि करते हैं। इसलिये यजमान स्वर्गलोक में जाकर देवताओं के साथ आनन्द भोगता है। यज्ञ के समान कोई दान नहीं है और यज्ञ के समान कोई निधि नहीं है। देवि! सम्पूर्ण धर्मों का उद्देश्य यज्ञ में प्रतिष्ठित है। यह यज्ञ द्वारा की गयी देवपूजा वैदिकी है। इससे भिन्न् जो दूसरी लौकिकी पूजा है, उसका वर्णन सुनो। देवताओें के सत्कार के लिये लोक में समय-समय पर उत्सव किया जाता है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।