महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 280 श्लोक 17-30

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अषीत्यधिकद्विशततम (280) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अषीत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद

‘दनुनन्दन ! कर्म से अनुरक्त और कर्म से विरक्त होने वाले प्राणिसमूह जिस प्रकार राग और विराग के हेतुभूत विभिन्न कर्मों को प्राप्त होते हैं, वह सुनों । ‘प्रभो ! जिस प्रकार वे कर्म में प्रवृत्त होते तथा जिस निमित्त से उसमें स्थित होते हैं और जिस अवस्था में उससे निवृत्त हो जाते हैं, वह सब मैं तुमसे क्रमशः बताऊँगा। तुम उसे यहाँ एकाग्रचित्त होकर सुनो । ‘श्रीमान् भगवान् नारायण हरि आदि और अन्त से रहित हैं। वे ही चराचर प्राणियों की रचना करते हैं । ‘वे ही सम्पूर्ण प्राणियों में क्षर और अक्षर रूप से विद्यमान हैं। ग्यारह इन्द्रियों का जो वैकारिक[१] सर्ग है, वह भी उन्हीं का स्वरूप है। वे अपनी चैतन्यमयी किरणों द्वारा सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त हो रहे हैं । ‘दैत्यराज ! पृथ्वीको भगवान् विष्णुके दोनो चरण समझो, स्वर्गलोकको मस्तक जानो, ये चारों दिशाएँ उनकी चार भुजाएँ हैं, आकाश कान हैं, तेजस्वी सूर्य उनका नेत्र है, मन चन्द्र है, बुद्धि (महत्तत्व) उनकी नित्य ज्ञानवृति है और जल रसनेन्द्रिय है । ‘दानवप्रवर ! सम्पूर्ण ग्रह उनकी दोनों भौंहोंके बीचमें स्थित हैं। नक्षत्रमण्डल नेत्रों से प्रकट हुआ है। दनुनन्दन ! यह पृथ्वी उनके दोनों चरणोंमें स्थित है। ‘उन्हें तुम सम्पूर्ण भूतस्वरूप, इस जगतका आदिकारण और परमेश्वर समझो। रजोगुण, तमोगुण और सत्त्वगुण - इन तीनों को नारायणमय ही मानो। तात ! समस्त आश्रमोंका फल वे ही हैं। विद्वान् पुरूष समस्त कर्मोंद्वारा प्राप्तव्य फल उन्हीं को मानते हैं । ‘कर्मोंका त्यागरूप जो संन्यास है, उसका फल भी वे ही अविनाशी परमात्मा हैं। वेद-मन्त्र उनके रोम हैं तथा प्रणव उनकी वाणी है । ‘बहुत-से वर्ण और आश्रम उनके आश्रम हैं, उनके अनेक मुख हैं। हृदयमें आश्रित धर्म भी उन्हींका स्वरूप है। वे ही ब्रह्म हैं। वे ही आत्मदर्शनरूप परम धर्म हैं। वे ही तप और सदसत्स्वरूप हैं । ‘श्रुति (वेद), शास्त्र और सोमपात्रसहित सोलह [२] ऋत्विजोंवाला यज्ञ भी वे ही हैं। वे ही ब्रह्म, विष्णु, अश्विनीकुमार, इन्द्र, मित्र, वरूण, यम और कुबेर हैं । ‘उनका दर्शन पृथक्-पृथक् होनेपर भी वे अपनी एकताको जानते हैं। तुम भी इस सम्पूर्ण जगतको एक परमात्मदेवके ही अधीन समझो । ‘दैत्यराज ! अनेक रूपोंमें प्रकट हुए उन परमात्माकी एकताका यह वेद प्रतिपादन करता है। जीव विज्ञानबलसे ही ब्रह्मका साक्षात्कार करता है। उस समय उसकी बुद्विमें वह ब्रह्म प्रकाशित हो जाता है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीविष्णुपुराण में तीन प्रकार की प्राकृत सृष्टि बतायी गयी है - पहली महत्तत्त्व की सृष्टि है, जिसे यहाँ ‘क्षर‘ शब्द से कहा गया है। दूसरी भूत - सृष्टि मानी गयी है, जो तन्मात्राओं की सृष्टि है। यहाँ ‘भूतेषु’ पद के द्वारा उसी की ओर संकेत किया गया है। ‘एकादशविकारात्मा’ इस पद के द्वारा तीसरी सृष्टि का निर्देश किया गया है, जिसे वैकारिक अथवा ऐन्द्रियक सर्ग भी कहते है। इसमें पाँच ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय और एक मन- इन ग्यारह तत्त्वों की रचना हुई।
  2. सोहल ऋत्विजों के नाम इस प्रकार है – 1-ब्रह्म, 2-ब्राह्मणाच्छंसी, 3-आग्नीध्र और 4-पोता - ये चार ऋत्विज सम्पूर्ण वेदों के ज्ञाता होते हैं। 5-होता, 6-मैत्रावरूण, 7-अछावाक और 8-ग्रावस्तोता - ये चार ऋत्विज ऋग्वेदी होते हैं। 9- अध्वर्यु, 10-प्रतिपस्थाता, 11- नेष्टा, 12-उन्नेता- ये चार यजुर्वेदी होते हैं। 13-उदगाता, 14-प्रस्तोता, 15-प्रतिहर्ता तथा 16-सुब्रह्मण्य- ये सामवेद के गायक होते हैं।

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