महाभारत आदि पर्व अध्याय 148 श्लोक 1-15
अष्टत्वारिंशदधिकशततम (148) अध्याय: आदि पर्व (जतुगृहपर्व)
विदूरजी के भेजे हुए नाविका का पाण्डवोंको गंगाजी के पार उतारना
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! इसी समय परमज्ञानी पुरुष विदुरजी ने अपने विश्वास के अनुसार एक शुद्ध विचार वाले पुरुष को उस वन में भेजा। कुरुनन्दन ! उसने विदुरजी के बताये अनुसार ठीक स्थान पर पहुंचकर वन में माता सहित पाण्डवों को देखा, जो नदी में कितना जल हैं, इसका अनुमान लगा रहे थे। परम बुद्धिमान महात्मा विदुर को गुप्तचर द्वारा उस पापासक्त पुरोचन की चेष्टाओं का भी पता चल गया था। इसीलिये उन्होंने उस समय उस बुद्धिमान् मनुष्य को वहां भेजा था। उसने मन और वायु के समान वेग से चलनेवाली एक नाव पाण्डवो को दिखाय, जो सब प्रकार से हवा का वेग सहने में समर्थ और ध्वजापताकाओं से सुशोभित थीं। उस नौका को चलाने के लिये यन्त्र लगाया गया था। वह नाव गंगाजी के पावनतट पर विद्यमान थी और उस विश्वासी मनुष्यों ने बनाकर तैयार किया था। तदनन्तर उस मनुष्य ने कहा- ‘युधिष्ठिर ! ज्ञानी! विदुरजी के द्वारा पहले कही हुई बात, जो मेरी विश्वसनीयता को सूचित करने वाली हैं, पुन: सुनिये ।मैं आपको संकेत के तौर पर दिलाने के लिये इसे कहता हूं। ‘(तुमसे विदुरजी ने कहा था-) ‘घास-फूस तथा सुखे वृक्षों के जंगल को जलाने वाली और सर्दी कोनष्ट कर देने वाली आग विशाल वन में फैल जाने पर भी बिल में रहने वाले चुहे आदि जन्तुओं को नहीं जला सकती। यों समझकर जो अपनी रक्षा का उपाय करता हैं, वही जीवित रहता है’। ‘इस संकेत से आप यह जान लें कि ‘मैं विश्वासपात्र हूं और विदूरजी ने ही मुझे भेजा हैं। इसके सिवा, सर्वतोभावेन अर्थसिद्धि का ज्ञान रखनेवाले विदुरजी ने पुन: मुझसे आपके लिये यह संदेश दिया कि ‘कुन्तीनन्दन ! तुम युद्ध मे भाइयों सहित दुर्योधन,कर्ण और शकुनि को अवश्य परास्त करोगे, इसमें संशय नहीं है। ‘यह नौका जलमार्ग के लिये उपयुक्त है। जल में यह बड़ी सुगतमता से चलने वाली है।यह नाव तुम सब लोगों को इस देश से दूर छोड़ देगी, इसमें संदेह नहीं है’। इसके बाद माता सहित नरश्रेष्ठ पाण्डवों को अत्यन्त दुखी देख नाविक ने सब को नाव पर चढ़ाया और जब वे गंगा के मार्ग से प्रस्थान करने लगे, तब फिर इस प्रकार कहा-‘विदुरजी ने आप सभी पाण्डुपुत्रों को भावना द्वारा हदय से लगाकर और मस्तक सूंघकर यह आशीवार्द फिर कहलाया है कि ‘तुम शान्तचित हो कुशलपूर्वक मार्ग पर बढ़ते जाओं। राजेन्द्र ! विदुरजी ने भेजने से आये उस नाविक ने उन शूरवीर नरश्रेष्ठ पाण्डवों से ऐसी बात कहकर उसी नाव से उन्हे गंगाजी के पार उतार दिया। पार उतरने के पश्चात् वे गंगाजी दूसरे तट पर जा पहुंचे, तब उन सब के लिये ‘जय हो, जय हो’ यह आशीवार्द सुनाकर वह नाविक जैसे आया था, उसी प्रकार लौट गया।महात्मा पाण्डव ने विदुरजी को उनके संदेश का उतर देकर गंगापीर हो अपने को छिपाते हुए वेगपूर्वक वहां से चल दिये। कोई भी उन्हें देख या पहचान न सका।
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