महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 281 श्लोक 1-18

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एकाशीत्‍यधिकद्विशततम (281) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकाशीत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर ने पूछा - दादाजी ! अमित तेजस्‍वी वृत्रासुर की धर्मनिष्‍ठा अद्भुत थी। उसका विज्ञान भी अनुपम था और भगवान् विष्‍णु के प्रति उसकी भक्ति भी वैसी ही उच्‍च कोटि की थी । त्तात ! अनन्‍त तेजस्‍वी श्रीविष्‍णु के स्‍वरूप का ज्ञान तो अत्‍यन्‍त कठिन है। नृप श्रेष्‍ठ ! उस वृत्रासुर ने उस परमपद का ज्ञान कैसे प्राप्‍त कर लिया ? यह बड़े आश्‍चर्य की बात है । आपने इस घटना का वर्णन किया है; इसलिये मैं इसे सत्‍य मानता और इस पर विश्‍वास करता हूँ; क्‍योंकि आप कभी सत्‍य से विचलित नहीं होते हैं तथापि यह बात स्‍पष्‍ट रूप से मेरी समझ में नहीं आयी है; अत: पुन: मेरी बुद्धि में प्रश्‍न उत्‍पन्‍न हो गया । पुरूषप्रवर ! वृत्रासुर धर्मात्‍मा, भगवान् विष्‍णु का भक्‍त और वेदान्‍त के पदों का अन्‍वय करके उनके तात्‍पर्य को ठीक-ठीक समझने में कुशल था तो भी इन्‍द्र ने उसे कैसे मार डाला ? भरतभूषण ! नृपश्रेष्‍ठ ! मैं यह बात आपसे पूछता हूँ, आप मेरे इस संशय का समाधान कीजिये। इन्‍द्र ने वृत्रासुर को कैसे परास्‍त किया ? महाबाहु ! पितामह ! इन्‍द्र और वृत्रासुर में किस प्रकार का युद्ध हुआ था, यह विस्‍तारपूर्वक बताइये; इसे सुनने के लिये मेरे मन में बड़ी उत्‍सुकता हो रही है । भीष्‍म जी ने कहा - राजन्  ! प्राचीन काल की बात है, इन्‍द्र रथ पर आरूढ हो देवताओं को साथ ले वृत्रासुर से युद्ध करने के लिये चले। उन्‍होंने अपने सामने खड़े हुए पर्वत के समान विशालकाय वृत्र को देखा । शत्रुदमन नरेश ! वह पाँच सौ योजन ऊँचा था और कुछ अधिक तीन सौ योजन उसकी मोटाई थी । वृत्रासुर का वह वैसा रूप, जो तीनों लोकों के लिये भी दुर्जय था, देखकर देवता लोग डर गये। उन्‍हें शान्ति नहीं मिलती थी । राजन् ! उस समय वृत्रासुर का वह उत्‍तम एवं विशाल रूप देखकर सहसा भय के मारे इन्‍द्र की दोनों जाँघें अकड़ गयीं । तदनन्‍तर वह युद्ध में उपस्थित होने पर समस्‍त देवताओं और असुरों के दलों में रणवाद्यों का भीषण नाद होने लगा । कुरूनन्‍दन ! इन्‍द्र को खड़ा देखकर भी वृत्रासुर के मन में न तो घबराहट हुई, न कोई भय हुआ और न इन्‍द्र के प्रति उसकी कोई युद्ध विषयक चेष्‍टा ही हुई । फिर तो देवराज इन्‍द्र और महामनस्‍वी वृत्रासुर में भारी युद्ध छिड़ गया, जो तीनों लोकों के मन में भय उत्‍पन्‍न करने वाला था । उस समय तलवार, पट्टिश, त्रिशूल, शक्ति, तोमर, मुदगर, नाना प्रकार की शिला, भयानक टंकार करने वाले धनुष्‍, अनेक प्रकार के दिव्‍य अस्‍त्र-शस्‍त्र तथा आग की ज्‍वालाओं से एवं देवताओं और असुरों की सेनाओं से यह सारा आकाश व्‍याप्‍त हो गया । भरतभूषण महाराज ! ब्रह्मा आदि समस्‍त देवता महाभाग ॠषि, सिद्धगण तथा अप्‍सराओं सहित गन्‍धर्व- ये सबके सब श्रेष्‍ठ विमानों पर आरूढ हो उस अद्भुत युद्ध का दृश्‍य देखने के लिये वहाँ आ गये थे । तब धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ वृत्रासुर ने आकाश को घेरकर वड़ी उतावली के साथ देवराज इन्‍द्र पर पत्‍थरों की वर्षा आरम्‍भ कर दी ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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