महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 281 श्लोक 19-39
एकाशीत्यधिकद्विशततम (281) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
यह सब देख देवगण कुपित हो उठे। उन्होंने युद्ध में सब ओर से बाणों की वर्षा करके वृत्रासुर के चलाये हुए पत्थरों की वर्षा को नष्ट कर दिया । कुरूश्रेष्ठ ! महामायावी महाबली वृत्रासुर ने सब ओर से मायामय युद्ध छेड़कर देवराज इन्द्र को मोह में डाल दिया। वृत्रासुर से पीड़ित हुए इन्द्र पर मोह छा गया। तब वसिष्ठ जी ने रथन्तर सामद्वारा वहाँ इन्द्र को सचेत किया । वसिष्ठ जी ने कहा- देवेन्द्र ! तुम सब देवताओं में श्रेष्ठ हो। दैत्यों तथा असुरों का संहार करने वाले शक्र ! तुम तो त्रिलोकी के बल से सम्पन्न हो; फिर इस प्रकार विषाद में क्यों पड़े हो ? ये जगदीश्वर ब्रह्मा, विष्णु और शिव तथा भगवान् सोमदेव और समस्त महर्षि तुम्हें उदिग्न देखकर तुम्हारी विजय के लिये स्वस्तिवाचन कर रहे हैं । इन्द्र ! किसी साधारण मनुष्य के समान तुम कायरता न प्रकट करो। सुरेश्वर ! युद्ध के लिये श्रेष्ठ बुद्धि का सहारा लेकर अपने शत्रुओं का संहार करो । देवराज ! ये सर्वलोकवन्दित लोकगुरू भगवान् त्रिलोचन शिव तुम्हारी ओर कृपापूर्ण दृष्टि से देख रहे हैं। तुम मोह को त्याग दो । शक्र ! ये बृहस्पति आदि महर्षि तुम्हारी विजय के लिये दिव्य स्तोत्रद्वारा स्तुति कर रहे हैं । भीष्म जी कहते हैं - राजन् ! महात्मा वसिष्ठ के द्वारा इस प्रकार सचेत किये जाने पर महातेजस्वी इन्द्र का बल बहुत बढ गया । तब भगवान् पाकशासन ने उत्तम बुद्धि का आश्रय ले महान योग से युक्त हो उस माया को नष्ट कर दिया । तदनन्तर अंगिरा के पुत्र श्रीमान बृहस्पति तथा बड़े-बडे़ महर्षियों ने जब वृत्रासुर का पराक्रम देखा, तब महादेवजी के पास आकर लोकहित की कामना से वृत्रासुर के विनाश के लिये उनसे निवेदन किया । तब जगदीश्वर भगवान् शिव का रौद्र ज्वर होकर लोकेश्वर वृत्र के शरीर में समा गया । फिर लोकरक्षापरायण सर्वलोकपूजित देवेश्वर भगवान् विष्णुने भी इन्द्र के वज्र में प्रवेश किया । तत्पश्चात बुद्धिमान बृहस्पति, महातेस्वी वसिष्ठ तथा सम्पूर्ण महर्षि वरदायक, लोकपूजित शतक्रतु इन्द्र के पास जाकर एकाग्रचित हो इस प्रकार बोले- प्रभो ! वृत्रासुर का वध करो ' । महेश्वर बोले-इन्द्र ! यह महान वृत्रासुर बड़ी भारी सेना से घिरा हुआ तुम्हारे सामने खड़ा है । इसमें सर्वत्र गमन करने की शक्ति है। यह अनेक प्रकार की मायाओं का सुविख्यात ज्ञाता भी है । सुरेश्वर ! यह श्रेष्ठ असुर तीनों लोकों के लिये भी दुर्जय है। तुम योग का आश्रय लेकर इसका वध करो। इसकी अवहेलना न करो । अमरेश्वर ! इस वृत्रासुर ने बल की प्राप्ति के लिये ही साठ हजार वर्षों तक तप किया था और तब ब्रह्माजी ने इसे मनोवांछित वर दिया था । सुरेन्द्र ! उन्होंने इसे योगियों की मीहिमा, महामायावीपन, महान बल-पराक्रम तथा सर्वश्रेष्ठ तेज प्रदान किया है। वासव ! लो, यह मेरा तेज तुमहारे शरीर में प्रवेश करता है। इस समय दानव वृत्र ज्वर के कारण बहुत व्यग्र हो रहा है; इसी अवस्था में तुम वज्र से इसे मार डालो । इन्द्र ने कहा - भगवन् ! सुरश्रेष्ठ ! आपकी कृपा से इस दुर्धर्ष दैत्य को मैं आपके देखते-देखते वज्र से मार डालूँगा ।
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