महाभारत वन पर्व अध्याय 224 श्लोक 36-42

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चतुर्विशत्‍यधिकद्विशततम (224) अध्‍याय: वन पर्व (समस्या पर्व )

महाभारत: वन पर्व: चतुर्विशत्‍यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 36-42 का हिन्दी अनुवाद
इन्‍द्र का देव सेना के साथ ब्रह्मजी के पास तथा ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना, अग्रि का मोह और वनगमन

मार्कण्‍डेयजी कहते हैं-राजन् । ऐसा निश्चय करके अग्रि देव ने गार्हपत्‍य अग्रि का आश्रय लिया और अपनी लपटों से स्‍वर्ग की सी कान्तिवाली उन ऋषि-पत्नियों का स्‍पर्श तथा दर्शन सा करते हुए वे बड़ी प्रसन्नता का अनुभव करने लगे । इस प्रकार बहुत देर तक वहां टिके रहकर अग्रि देव काम के वश में हो गये । वे अपना ह्दय उन सुन्‍दरियों पर निछावर करके उनसे मिलने की कामना कर रहे थे । उनका ह्दय कामाग्रि से संतप्‍त हो रहा था। वे उन ब्रह्मर्षियों की पत्नियों के न मिलने से अपने शरीर को त्‍याग देने का निश्चय कर चुके थे । अत: वन में चले गये । प्रजापति दक्ष की पुत्री स्‍वाहा पहले से ही अग्रि देव को अपना पति बनाना चाहती थी और इसके लिये बहुत दिनों से वह अग्रि का छिद्र ढूंढ़ रही थी । पंरतु अग्‍नि देव के सदा सावधान रहने के कारण साध्‍वी स्‍वाहा उनका कोई दोष नहीं देख पाती थी। जब उसे अच्‍छी तरह मालूम हो गया कि अग्‍नि कामसंतप्‍त होकर वन में चले गये हैं, तब उसने मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया । ‘मैं अग्रि के प्रति काम भाव से पीडित हूं। अत: स्‍वयं ही सप्‍त र्षि पत्नियों के रुप धारण करके अग्रि देव की कामना करुंगी; क्‍योंकि वे उनके रुप से मोहित हो रहे हैं। ऐसा करने से उन्‍हें प्रसन्नता होगी और मेरी कामना भी पूर्ण हो जायगी । इस प्रकार श्री महाभारत वन पर्व के अन्‍तर्गत मार्कण्‍डेय समास्‍या पर्व में आग्डि़रसो पाख्‍यान के प्रसग्ड़ में स्‍कन्‍द की उत्‍पति विषयक दो सौ चौबीसवां अध्‍याय पूरा हुआ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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