महाभारत वन पर्व अध्याय 134 श्लोक 25-36

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चतुस्‍त्रिं‍शदधि‍कशततम (134) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

महाभारत: वन पर्व: चतुस्‍त्रिं‍शदधि‍कशततम अध्‍याय: श्लोक 25-36 का हिन्दी अनुवाद

वे सब-के-सब वरूण का यज्ञ देखने के लि‍ये गये है और अब पुन: लौटकर आ रहे है। मैं पूजनीय ब्राह्मण अष्‍टावक्र जी का सत्‍कार करता हूं; जि‍नके कारण मेरे अपने पि‍ताजी से मि‍लना होगा । अष्‍टावक्र बोले- राजन ! बन्‍दी ने अपनी जि‍स वाणी ( प्रवचनपटुता अथवा मेघ बुद्धि‍बल ) से वि‍द्वान ब्राह्मणों को भी परास्‍त कि‍या और समुद्र के जल मे डुबाया है, उसी उस वाकशक्‍ति‍ को मैने अपनी बुद्धि‍ से कि‍स प्रकार उखाड़ फेंका है, यह सब इस सभा में बैठे हुए वि‍द्वान पुरूष मेरी बातें सूनकर ही जान गये होंगे । अग्‍नि‍ स्‍वाभाव से ही दहन करने वाला है तो भी वह ज्ञेय वि‍षय तत्‍काल जानने मे समर्थ है। इस कारण परीक्षा के समय जो सदाचारी और सत्‍यवादी होते है, उनके घरों को ( शरीरों को ) छोड़ देता है, जलता नहीं । वैसे ही संत लोग भी वि‍नम्रभाव से बोलने वाले बालक पुत्रों के वचनों मे से जो सत्‍य और हि‍तकर बात होती है, उसे चुन लेते है- ( उसे मान लेते है, उनकी अवहेलना नहीं करते )। भाव यह कि‍ तुमको मेरे वचनों का भाव समझकर उन्‍हें ग्रहण करना चाहि‍ये । राजन ! जान पड़ता है, तुमने लसोड़े के पत्‍तों पर भोजन कि‍या है या उसका फल खा लि‍या है, इसी से तुम्‍हारा तेज क्षीण हो गया है; अत: तुम बन्‍दी द्वारा की गई स्‍तुति‍यां तुम्‍हें उन्‍मत्‍त कर रही है, यही कारण है कि‍ अंकुश की मार खाकर भी न मानने वाले मतवाले हाथी की भांति‍ तुम मेरी इन बातों को नहीं सुन पा रहे हो । जनक ने कहा- ब्रह्मन ! मै आपकी दि‍व्‍य एवं अलौकि‍क वाणी सुन रहा हूं, आप साक्षात दि‍व्‍यस्‍वरूप है, आपने शास्‍त्रार्थ में बन्‍दी को जीत लि‍या है। आपकी इच्‍छा अभी पूरी की जा रही है। देखि‍ये यह है आपके द्वारा जीता हुआ बन्‍दी । अष्‍टावक्र बोले- महाराज ! इस बन्‍दी के जीवि‍त रहने से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। यदि‍ इसके पि‍ता वरूणदेव है तो उनके पास जाने के लि‍ये इसे नि‍श्‍चय ही जलाशय में डुबो दीजि‍यें । बन्‍दी बोला- राजन ! मै वास्‍तव में राजा वरूण का पुत्र हूं, अत: डुबाये जाने पर का मुझे कोई भय नहीं हैं। ये अष्‍टावक्र दीर्घकाल से नष्‍ट हुए अपने पि‍ता कहोड़ को इसी समय देखेंगे । लोमशजी कहते है- युधि‍ष्‍ठि‍र ! तदनन्‍तर महामना वरूण द्वारा पूजि‍त हुए वे समस्‍त ब्राह्मण ( जो बन्‍दी द्वारा जल में डुबोये गये थे, ) सहसा राजा जनक के सीप प्रकट हो गये । उस समय कहोड़ ने कहा- जनकराज ! लोग इसलि‍ये अच्‍छे कर्मों द्वारा पुत्र की इच्‍छा रखते है, क्‍यों कि‍ जो कार्य मै नहीं कर सका, उसे मेरे पुत्र ने कर दि‍खाया ।। जनक राज ! कभी कभी र्नि‍बल भी बलवान, मुर्ख के भी पण्‍डि‍त तथा अज्ञानी के भी ज्ञानी पुत्र उत्‍पन्‍न हो जाता है ।महाराज जनक के इस यज्ञ मं उत्‍तम एवं महत्‍वपूर्ण और औक्‍थ्‍य सामकागान कि‍या जाता है, वि‍धि‍पूर्वक सोमरस का पान हो रहा है, देवगण प्रत्‍यक्ष दर्शन देकर बड़े हर्ष के साथ अपने अपने पवि‍त्र भाग ग्रहण कर रहे है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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