श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 17-26
दशम स्कन्ध: द्वितीय अध्याय (पूर्वार्ध)
उस में विद्यमन रहने पर भी अपने को अव्यक्त से व्यक्त कर दिया। भगवान की ज्योति को धारण करने के कारण वसुदेव सूर्य के सामान तेजस्वी हो गये, उन्हें देखकर लोगों की आँखें चौंधियां जातीं। कोई भी अपने बल, वाणी प्रभाव से उन्हें दबा नहीं सकता था । भगवान के उस ज्योतिर्मय अंश को, जो जगत का परम मंगल करने वाला है, वसुदेवजी के द्वारा आधान किये जाने पर देवी देवकी ने ग्रहण किया। जैसे पूर्व दिशा चन्द्रदेव को धारण करती है, वैसे ही शुद्ध सत्व से संपन्न देवी देवकी ने विशुद्ध मन से सर्वात्मा एवं आत्मस्वरूप भगवान को धारण किया | भगवान सारे जगत के निवास स्थान हैं। देवकी उनका भी निवास स्थान बन गयी। परन्तु घड़े आदि के भीतर बंद किये हुए दीपक का और अपनी विद्या दूसरे को न देने वाले ज्ञानखल की श्रेष्ठ विद्या का प्रकाश जैसे चारों ओर नहीं फैलता, वैसे ही कंस के कारागार में बंद देवकी की भी उतनी शोभा नहीं हुई | देवकी के गर्भ में भगवान विराजमान हो गये थे। उसके मुख पर पवित्र मुस्कान थी और उसके शरीर की कान्ति से बंदीगृह जगमगाने लगा था।
जब कंस ने उसे देखा, तब वह मन-ही-मन कहने लगा — अबकी बार मेरे प्राणों के ग्राहक विष्णु ने इसके गर्भ में अवश्य ही प्रवेश किया है; क्योंकि इससे पहले देवकी कभी ऐसी न थी | अब इस विषय में शीघ्र-से-शीघ्र मुझे क्या करना चाहिए ? देवकी को मारना तो ठीक न होगा; क्योंकि वीर पुरुष स्वार्थवश अपने पराक्रम को कलंकित नहीं करते। एक तो यह स्त्री है, दूसरे बहिन और तीसरे गर्भवती है। इसको मारने से तो तत्काल ही मेरी कीर्ति, लक्ष्मी और आयु नष्ट हो जायेगी | वह मनुष्य तो जीवित रहने पर भी मरा हुआ ही है, जो अत्यंत क्रूरता का व्यवहार करता है। उसकी मृत्यु के बाद लोग उसे गाली देते हैं। इतना ही नही, वह देहाभिमानियों के योग्य घोर नरक में भी अवश्य-अवश्य जाता है | यद्यपि कंस देवकी को मार सकता था, किन्तु स्वयं ही वह इस अत्यन्त क्रूरता के विचार से निवृत हो गया[१] | अब भगवान के प्रति दृढ़ वैर का भाव मन में गाँठकर उनके जन्म की प्रतीक्षा करने लगा | वह उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते और चलते-फिरते—सर्वदा ही श्रीकृष्ण के चिन्तन में लगा रहता। जहाँ उसकी आँख पड़ती, जहाँ कुछ खड़का होता, वहाँ उसे श्रीकृष्ण दीख जाते। इस प्रकार उसे सारा जगत ही श्रीकृष्णमय दीखने लगा |
परीक्षित् ! भगवान् शंकर और ब्रह्माजी कंस के कैद खाने में आये। उनके साथ नारद आदि ऋषि भी थे। वे लोग सुमधुर वचनों से सबकी अभिलाषा पूर्ण करने वाले श्रीहरि की इस प्रकार स्तुति करने लगे । प्रभो ! आप सत्यसंकल्प हैं। सत्य ही आपकी प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन है। सृष्टि के पूर्व, प्रलय के पश्चात और संसार की स्थिति के समय — इन असत्य अवस्थाओं में भी आप सत्य हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँच दृश्यमान सत्यों के आप ही कारण हैं। और उन में अन्तर्यामी रूप से विराजमान भी हैं। आप इस दृश्यमान जगत के परमार्थस्वरुप हैं। आप ही मधुर वाणी और समदर्शन के प्रवर्तक हैं। भगवन ! आप बस, सत्यस्वरूप ही हैं। हम सब आपकी शरण में आये हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो कंस विवाह के मंगल चिन्हों जी धारण की हुई देवकी का गला काटने के उद्दोग से न हिचका, वही आज इतना सद्-विचारवान् हो गया, इसका क्या कारण है ? अवश्य ही आज वह जिस देवकी को देख रहा है, उसके अन्तरंग मे—गर्भ में श्रीभगवान् हैं। जिसके भीतर भगवान् हैं, उसके दर्शन से सद्बुद्धि का उदय होना कोई आश्चर्य नहीं है।
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