महाभारत आदि पर्व अध्याय 70 श्लोक 33-51
सप्ततितम (70) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
‘सेनापति ! और सैनिकों ! मैं रजोगुण रहित तपस्वी महर्षि कश्यप नन्दन कण्व का दर्शन करने के लिये उनके आश्रम में जाऊंगा। जब तक में वहां से लौट न आऊं, तब तक तुम लोग यहीं ठहरो’। इस प्रकार आदेश दे नरेश्वर दुष्यन्त ने नन्नदन वन के समान सुशोभित उस तपोवन में पहुंचकर भूख-प्यास को भुला दिया। वहां उन्हें बड़ा आनन्द मिला। वे नरेश मुकुट आदि राज चिन्हों को हटाकर साधारण भेष-भूषा में मन्त्रियों और पुरोहित के साथ उस उत्तम आश्रम के भीतर गये। वहां वे तपस्या के भण्डार अविकारी महर्षि कण्व का दर्शन करना चाहते थे। राजा ने उस आश्रम को देखा, मानो दूसरा ब्रह्मलोक हो । नाना प्रकार पक्षी वहां कलरव कर रहे थे। भ्रमरों के गुंजन से सारा आश्रम गूंज रहा था। श्रेष्ठ ऋेग्वेदी ब्राह्मण पद और क्रम पूर्वक ऋचाओं को पाठ कर रहे थे। नरश्रेष्ठ दुष्यन्त ने अनेक प्रकार के यज्ञ सम्बन्धी कर्मों में पढी जाती हुई वैदिक ऋचाओं को सुना। यज्ञ विद्या और उसके अंगों की जानकारी रखने वाले यर्जुवेदी विद्वान भी आश्रम की शोभा बढ़ा रहे थे। नियम पूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले सामवेदी महर्षियों द्वारा वहां मधुर स्वर से सामवेद का गान किया जा रहा था। मन को संयम में रखकर नियम पूर्वक उत्तम व्रत कर पालन करने वाले सामवेदी और अथर्ववेदी महर्षि भारूण्डसंज्ञक साम मन्त्रों के गीत गाते और अथर्ववेद के मन्त्रों का उच्चारण करते थे; जिससे उस आश्रम की बड़ी शोभा होती थी। श्रेष्ठ अथर्ववेदीय विद्वान तथा पूगयज्ञिय नामक साम के गायक सामवेदी महर्षि पद और क्रम सहित अपनी-अपनी संहिता का पाठ करते थे। दूसरे द्विजबालक शब्द संस्कार से सम्पन्न थे- वे स्थान, करण और प्रयत्न का ध्यान रखते हुए संस्कृत वाक्यों का उच्चारण कर रहे थे। इन सबके तुमुल शब्दों से गूंजता हुआ वही सुन्दर आश्रम द्वितीय ब्रह्मलोक के समान सुशोभित होता था। यज्ञवेदी की रचना के ज्ञाता, क्रम और शिक्षा में कुशल, न्याय के तत्व और आत्मानुभव से सम्पन्न, वेदों के पारंगत, परस्पर विरूद्व प्रतीत होने वाले अनेक वाक्यों की एक वाक्यता करने में कुशल तथा विभिन्न शाखाओं की गुण विधियों का एक शाखा में उप संहार करने की कला में निपुण, उपासना आदि विशेष कार्यों के ज्ञाता, मोक्ष धर्म में तत्पर, अपने सिद्वान्त की स्थापना करके उसमें शंका उठाकर उसके परिहार पूर्वक उस सिद्वान्त के समर्थन में परम प्रवीण, व्याकरण, छन्द, निरूक्त, ज्योतिष तथा शिक्षा और कल्प - वेद के इन छहों अंगों के विद्वान, पदार्थ, शुभाशुभ कर्म, सतत्व, रज, तम आदि गुणों को जानने वाले तथा कार्य (दृष्य वर्ग) और कारण (मूल प्रकृति) के ज्ञाता, पशु-पक्षियों की बोली समझने वाले, व्यास ग्रन्थ का आश्रय लेकर मन्त्रों की व्याख्या करने वाले तथा विभिन्न शास्त्रों के विद्वान वहां रहकर जो शब्दोच्चारण कर रहे थे, उन सबको राजा दुष्यन्त ने सुना। कुछ लोक रंजन करने वाले लोगों की बातें भी उस आश्रम में चारों ओर सुनाई पड़ती थी। शत्रु वीरों को संहार करने वाले दुष्यन्त ने स्थान-स्थान पर नियम पूर्वक उत्तम एवं कठोर व्रत का पालन करने वाले श्रेष्ठ एवं बुद्विमान ब्राम्हणों को जप और होम में लगे हुए देखा ।। वहां प्रयत्न पूर्वक तैयार किये हुए बहुत सुन्दर एवं विचित्र आसन देखकर राजा को बड़ा आष्चर्य हुआ। द्विजों द्वारा की हुई देवालयों की पूजा पद्वति देखकर नृपश्रेष्ठ दुष्यन्त ने ऐसा समझा कि मैं ब्रह्मलोक में आ पहुंचा हूं। वह श्रेष्ठ एवं शुभ आश्रम कश्यपनन्दन महर्षि कण्व की तपस्या से सुरक्षित तथा तपोवन से उत्तम गुणों से संयुक्त था। राजा उसे देखकर तृप्त नहीं होते थे। महर्षि कण्व का वह आश्रम जिसमें वे स्वंय रहते थे, सब ओर से महान् व्रत का पालन करने वाले तपस्वी महर्षियों द्वारा घिरा हुआ था। वह अत्यन्त मनोहर, मंगलमय और एकान्त स्थान था। शत्रु नाशक राजा दुष्यन्त ने मन्त्री और पुरोहित के साथ उसकी सीमा में प्रवेश किया।
« पीछे | आगे » |