महाभारत आदि पर्व अध्याय 71 श्लोक 1-12

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एकसप्ततितम (71) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: एकसप्ततितम अध्‍याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

राजा दुष्यन्त का शकुन्तला के साथ वार्तालाप, शकुन्तला के द्वारा अपने जन्म का कारण वतलाना तथा उसी प्रसंग में विश्वामित्र की तपस्या से इन्द्र का चिन्तित होकर मेनका को मुनि का तपोभंग करने के लिये भेजना

वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर महाबाहु राजा दुष्यन्त साथ आये हुए अपने उन मन्त्रियों को भी बाहर छोड़कर अकेले ही उस आश्रम में गये, किन्तु वहां कठोर व्रत का पालन करने वाले महर्षि नहीं दिखाई दिये। महर्षि कण्व को न देखकर और आश्रम को सूना पाकर राजा ने सम्पूर्ण वन को प्रतिध्वनित करते हुए-से पूछा- ‘यहां कौन है?’ दुष्यन्त के उस शब्द को सुनकर एक मूर्तिमति लक्ष्मी सी सुन्दरी कन्या तापसी का वेश धारण किये आश्रम के भीरत से निकली। जनमेजय ! उत्तम व्रत का पालन करने वाली वह सुन्दरी कन्या रूप, यौवन, शील और सदाचार से सम्पन्न थी। राजा दुष्यन्त के विशाल नेत्र प्रफुल्ल कमल दल के समान सुशोभित थे। उनकी छाती चौड़ी, शरीर की गठन सुन्दर, कंधे सिंह सदृश और भुजाऐं लम्बी थीं। वे समस्त शुभलक्षणों से सम्मानित थे। श्याम नेत्र वाली उस शुभलक्षणा कन्या ने सम्मान्य राजा दुष्यन्त को देखते ही मधुर वाणी में उनके प्रति सम्मान का भाव प्रदर्षित करते हुए शीघ्रता पूर्वक स्पष्ट शब्दों में कहा - ‘अतिथी दवे ! आपका स्वागत है’ महाराज ! फिर आसन, पाद्य और अघ्र्य अपर्ण करके उनका समादर करने के पष्चात उसने राजा से पूछा - ‘आपका शरीर नीरोग है न? घर पर कुशल तो है? उस मसय विधिपूर्वक आदर-सत्कार करके आरोग्य और कुशल पूछकर वह तपस्विनी कन्या मुस्कराती हुई सी बोली - ‘कहिये आपकी क्या सेवा की जाये? ‘आपके आश्रम की ओर पधारने का क्या कारण है? आप यहां कौनसा कार्य सिद्व करना चाहते है? आपका परिचय क्या है? आप कौन हो? और आज यहां महर्षि के इस शुभ आश्रम पर (किस उद्देश्‍य से) आये हैं?’ उसके द्वारा विधिवत किये हुए आथित्य सत्कार को ग्रहण करके राजा ने उस सर्वांग सुन्दरी एवं मधुर भाषिनी कन्या की ओर देखकर कहा। दुष्यन्त बोले - कमललोचने ! मैं राजर्षि महात्मा इलिल का पुत्र हूं और मेरा नाम दुष्यन्त है। मैं यह सत्य कहता हूं। भद्रे ! मैं परम भाग्यशाली महर्षि कण्व की उपासना करने- उनके सत्संग का लाभ लेने के लिये यहां आया हूं। शोभने ! बताओ तो, भगवान कण्व कहां गये हैं? शकुन्तला बोली- अभ्यागत ! मेरे पूज्य पिताजी फल लाने के लिये आश्रम से बाहर गये हैं। अतः दो घड़ी प्रतीज्ञा कीजिये। लौटने पर उनसे मिलियेगा। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! राजा दुष्यन्त ने देखा - महर्षि कण्व आश्रम पर नहीं है और वह तापसी कन्या उन्हें वहां ठहरने के लिये कह रही है; साथ ही उनकी दृष्टि इस बात की ओर भी गयी यह कन्या सर्वांग सुन्दरी, अर्पूव शोभा से सम्पन्न तथा मनोहर मुस्कान से सुशोभित है। इसका शरीर सौन्दर्य की प्रभा से प्रकाशित हो रहा है, तपस्या तथा मन-इन्द्रियों के संयम ने इसमें अपूर्व तेज भर दिया है। यह अनुपम रूप और नई जवानी से उद्भासित हो रही है, यह सब सोचकर राजा ने पूछा- ‘मनोहर कटि प्रदेश से सुशोभित सुन्दरी ! तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो? और किसके लिये वन मे आयी हो? शोभने ! तुममें ऐसे अद्भुत रूप और गुणों का विकास कैसे हुआ है?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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