महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 284 श्लोक 28-43
चतुरशीत्यधिकद्विशततम (284) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
श्री भगवान शिव बोले- देवेश्वरि! तनुमध्यमे ! वरारोहे ! वरवर्णिनि ! मैं अपनी प्रशंसा नहीं करता हूँ। मेरा प्रभाव देखो। जिसके कारण तुम्हें दु:ख हुआ है, उस यज्ञ को नष्ट करने के लिये मैं जिस वीर पुरूष की सृष्टि कर रहा हूँ' उस पर दृष्टिपात करो । अपने प्राणों से भी अधिक प्यारी पत्नी उमा से ऐसी बात कहकर भगवान् महेश्वर ने अपने मुख से एक अद्भुत एवं भयंकर प्राणी को प्रकट किया, जो उनका हर्ष बढाने वाला था । महेश्वर ने उस पुरूष को आज्ञा दी - 'वीर ! तुम दक्ष के यज्ञ का नाश कर दो।' फिर तो भगवान् के मुख से निकले हुए उस सिंह के समान पराक्रमी एक ही वीर ने पार्वती देवी के दु:ख और क्रोध का निवारण करने के लिये खेल ही खेल में प्रजापति दक्ष के उस यज्ञ का विध्वंस कर डाला । उस समय भवानी के क्रोध से प्रकट हुई अत्यन्त भयंकर रूपावाली महाकाली महेश्वरी ने भी अपना पराक्रम दिखाने के लिये सेवकों सहित उस वीर के साथ प्रस्थान किया था । (वीर भद्र ने किस प्रकार उस यज्ञ का विघ्वंस किया, यह प्रसंग आगे बताया गया है - ) महादेवजी की अनुमति जानकर उसने मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। वह वीर अपने ही समान शौर्य, रूप और बल से सम्पन्न था (उसकी कहीं उपमा नहीं थी) । भगवान् शिव का वह सब कुछ करने में समर्थ क्रोध ही मूर्तिमान होकर उस वीर के रूप में प्रकट हुआ था। उसके बल, वीर्य, शक्ति और पुरूर्षाथ का कहीं अन्त नहीं था। पार्वती देवी के क्रोध और खेद का निवारण करने वाला वह पुरूष वीरभ्रद के नाम से विख्यात हुआ । उसने अपने रोमकूपों से रौम्य नामवाले गणेश्वरों को प्रकट किया, जो रूद्र के समान ही होने के कारण् रौद्रगण कहलाये। उन सबके बल-पराक्रम भी रूद्र के समान थे । वे भयंकर रूपधारी विशालकाय रूद्रगण सैकड़ों और हजारों की टोलियाँ बनाकर अपनी किलकारियों से आकाश को गुँजाते हुए-से दक्ष यज्ञ का विध्वंस करने के लिये बड़ी तेजी के साथ टूट पड़े । उस महाभयंकर कोलाहल से उस यज्ञ में पधारे हुए समस्त देवता व्याकुल हो उठे। पर्वत टूक-टूक होकर बिखर गये। धरती डोलने लगी, आँधी चलने लगी और समुद्र में तूफान आ गया । उस समय आग नहीं जलती थी, सूर्य का प्रकाश फीका पड़ गया; ग्रह, नक्षत्र और चन्द्रमा भी निस्तेज हो गये। इस प्रकार वहाँ चारों ओर अँधेरा छा गया। देवता, ॠषि और मनुष्य—सभी छिप गये—-कोई दिखायी नहीं देते थे। दक्ष से अपमानित हुए रूद्रगण यज्ञशाला में सब ओर आग लगाने लगे । दूसरे भयंकर भूत उसी यज्ञ के सदस्यों को पीटने लगे। कुछ यूप उखाड़ने लगे। बहुतेरे रूद्रगण यज्ञ की सामग्री को कुचलने और रौंदने लगे । वायु और मन के समान वेगशाली कितने ही पार्षद इधर-उधर दौड़ लगाने लगे। कुछ लोग यज्ञ के उपयोग में आनेवाले पात्रों तथा दिव्य आभूषणों को चर-चूर कर रहे थे । उनके बिखरकर गिरते हुए टुकड़े आकाश में छिटके हुए तारों के समान दिखायी देते थे। उस यज्ञ भूमि में जहाँ-तहाँ दिव्य अन्न, पान और भक्ष्य पदार्थों के पर्वतों-जैसे ढेर दिखायी देते थे ।
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