महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 284 श्लोक 44-59
चतुरशीत्यधिकद्विशततम (284) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
दूध की दिव्य नदियाँ वहाँ बहती दिखती थीं, घी और खीर की कीच जम गयी थी, दही और मट्ठा पानी की तरह बह रहे थे तथा खाँड और शक्कर वहाँ बालू की भाँति बिछ गये थे । ये सब नदियाँ षटरस भोजन प्रवाहित कर रही थीं। गुड़ के रस की छोटी-छोटी मनोरम नहरें दृष्टिगोचर होती थीं। नाना प्रकार के फलों के गूदे और भाँति-भाँति के भक्ष्य-पदार्थ प्रस्तुत किये गये थे । दिव्य पेय पदार्थ, लेह्य और चोष्य आदि जो-जो भोजन वहाँ उपलब्ध हुए, उन सबको वे रूद्रगण अपने विविध मुखोंद्वारा खाने, नष्ट करने और चारों और छींटने तथा फेंकने ल्रगे । वे विशालकाय भूत रूद्रदेव के क्रोध से कालाग्नि के समान होकर देवताओं की सेनाओं को चारों ओर से डराने और क्षुब्ध करने लगे । अनेक प्रकार की आकृति वाले वे रूद्रगण खेल्रते-कूदते और देवांगनाओं को दूर फेंक देते थे। यद्यपि सम्पूर्ण देवताओं ने मिलकर प्रयत्नपूर्वक उस यज्ञ की रक्षा की थी तथापि रूद्रकर्मा वीरभद्र ने रूद्रदेव के क्रोध से प्रेरित हो सब ओर से शीघ्र ही उसे जलाकर भस्म कर दिया । तत्पश्चात उसने ऐसी भीषण गर्जना की, जो समस्त प्राणियों के मन में भय उत्पन्न करने वाली थी। फिर उसने यज्ञ का सिर काटकर बड़े जोर से सिंहनाद किया और मन-ही-मन आनन्द का अनुभव किया । तब ब्रह्मा आदि देवता तथा प्रजापति दक्ष - ये सब के -सब हाथ जोड़कर बोले - 'देवदेव ! कहिये, आप कौन हैं ? वीरभद्र ने कहा - ब्रह्मन ! मैं न तो रूद्र हूँ, न देवी हूँ और न यहाँ भोजन करने के लिये ही आया हूँ। तुम्हारा यह यज्ञ देवी पार्वती के रोष का कारण बन गया है- ऐसा जानकर सर्वात्मा भगवान् शिव कुपित हो उठे हैं । मैं यहाँ आये हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणों का दर्शन करने या कौतूहलवश इस यज्ञ का तमाशा देखने के लिये नहीं आया हूँ। तुम्हें यह मालूम होना चाहिये कि मैं तुम्हारे इस यज्ञ का विनाश करने के लिये ही यहाँ आया हूँ । मेरा नाम वीरभद्र है। रूद्रदेव के क्रोध से मेरा प्राकट्य हुआ है। यह नारी भद्रकाली के नाम से विख्यात है और देवी पार्वती के कोप से प्रकट हुई है। देवाधिदेव महादेव ने हम दोनों को यहाँ भेजा है। इसलिये हम दोनों इस यज्ञ के निकट आये हैं । विप्रवर ! तुम देवाधिदेव उमावल्लभ भगवान् शिव की शरण में जाओ। महादेव जी का क्रोध भी परम मंगलमय है और दूसरों से मिला हुआ वरदान भी मंगलकारक नहीं होता । वीरभद्र की बात सुनकर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ दक्ष ने भगवान् शिव के उद्देश्य से प्रणाम करके निम्नांकित स्तोत्र के द्वारा उनकी स्तुति की - 'जो सम्पूर्ण जगत के शासक, पालक, महान आत्मा, नित्य, सनातन, अविकारी और आराध्यदेव हैं, उन महादेवजी की आज मैं शरण लेता हूँ ' । तब अनेक नेत्रों वाले, शत्रुविजयी, महादेव अपने मुखों द्वारा यत्नपूर्वक प्राण और अपान वायु को अवरूद्ध करके सम्पूर्ण दिशाओं में दृष्टिपात करते हुए सहसा अग्निकुण्ड से निकल पड़े। प्रलयकालीन अग्नि के समान तेजस्वी स्वरूप से सहस्त्रों सूर्यों की प्रभा धारण किये वे दक्ष के सामने खड़े हो गये और मुस्कराकर बोले - ' प्रजापते ! बोलो, मैं आज तुम्हारा कौन-सा कार्य सिद्ध करूँ ' ।
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