महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 284 श्लोक 60-77
चतुरशीत्यधिकद्विशततम (284) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
उस समय देवगुरू बृहस्पति ने महादेव जी को वेद का मखाध्याय पढकर सुनाया । तत्पश्चात् प्रजापति दक्ष दोनों नेत्रों से आँसुओं की धारा बहाते हुए हाथ जोड़कर भय और शंका से सहमे हुए बोले- ’भगवन ! यदि मैं आपका प्रिय हूँ, आपके अनुग्रह का पात्र हूँ अथवा यदि आप मुझे वर देने में उद्यत हैं तो मैं यही वर माँगता हूँ कि मैंने दीर्घ काल से महान प्रयत्न् करके जो ऐसा यज्ञ सम्भार जुटा रखा था, उसमें से जो जला दिया गया, खा-पी लिया गया, नष्ट किया गया अथवा चूर-चूर करके फेंक दिया गया, वह सब मेरे लिये व्यर्थ न हो’। तब धर्म के अध्यक्ष, प्रजापालक, विरूपाक्ष, त्रिनेत्रधारी, भगनेत्रधारी देवेश्वर भगवान् हर ने ’तथास्तु’ कहकर दक्ष को मनोवांछित वर दे दिया। महादेव जी से वर पाकर दक्ष ने धरती पर घुटने टेककर उन्हें प्रणाम किया और एक हजार नामों द्वारा उन भगवान् वृषभध्वज का स्तवन किया। युधिषिठिर ने पूछा- तात ! निष्पाप पितामह ! प्रजापति दक्ष ने महादेवजी की स्तुति की थी, उनका मुझसे वर्णन कीजिये। उन्हें सुनने के लिये मेरे हृदय में बड़ी श्रद्धा है। भीष्मजी कहते हैं- भरतनन्दन ! अद्भुत कर्म करने वाले गूढ़ व्रत धारी देवाधि देव महादेवजी के कुछ गोपनीय नाम हैं और कुछ प्रकाशित हैं। तुम उन सबको सुनो। (दक्ष बोले)- देव देवेश्वर ! आपको नमस्कार है। आप देव वैरी दानवों की सेना के संहारक और देवराज इन्द्र की शक्ति को भी स्तम्भित करने वाले हैं। देवता और दानव-सब ने आपकी पूजा की है। आप सहस्त्रों नेत्रों से युक्त होने के कारण सहस्त्राक्ष हैं। आपकी इन्द्रियाँ सबसे विलक्षण अर्थात् परोक्ष विषय को भी प्रत्यक्ष करने वाली हैं, इसलिये आपको विरूपाक्ष कहते हैं। आप त्रिनेत्रधारी होने के कारण व्यक्ष कहलाते हैं। यक्षराज कुबेर के भी आप प्रिय (इष्टदेव) हैं। आपके सब ओर हाथ और पैर हैं तथा सब ओर नेत्र, मस्तक और मुख हैं। आपके कान भी सब ओर हैं। संसार में जो कुछ है, सबको व्याप्त करके आप स्थित हैं। शंकुकर्ण, महाकर्ण, कुम्भकर्ण, अर्णवालय, गजेन्द्रकर्ण, गोकर्ण और पाणिकर्ण-ये सात पार्षद आपके ही स्वरूप हैं। इन सबके रूप में आपको नमस्कार है। आपके सैकड़ों उदर, सैकड़ों आवर्त और सैकड़ों जिहाएँ होने के कारण आप क्रमशः शतोदर, शतावर्त और शतजिह नाम से प्रसिद्ध हैं। आपको प्रणाम हैं। गायत्री मन्त्र का जप करने वाले द्विज आपकी ही महिमा का गान करते हैं और सुर्योपासक सूर्य के रूप में आपकी ही ब्रह्मा, शतक्रतु इन्द्र और आकाश के समान सर्वोच्च पद मानते हैं। समुद्र और आकाश के समान अपार, अनन्त रूप धारण करने वाले महामूर्तिधारी महेश्वर ! जैसे गोशाला में गौएँ निवास करती हैं, उसी प्रकार आपकी भूमि, जल, वायु, अग्नि, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा एवं यजमानरूप आठ प्रकार की मूर्तियों में सम्पूर्ण देवताओं का निवास है। मैं आपके शरीर में सोम, अग्नि, वरूण, सूर्य, विष्णु, ब्रह्मा तथा बृहस्पति को भी देख रहा हूँ। आप ही कारण, कार्य, सूर्य क्रिया (प्रयत्न) और करण हैं। सत् और असत् पदार्थों की उत्पत्ति और प्रलय के स्थान भी आप ही हैं। आप सबके उद्भव का स्थान होने से भव, संहार करने के कारण शर्व, 'रू’ अर्थात पाप एवं दु:ख को दूर करने से रूद्र, वरदाता होने से वरद तथा पशुओं (जीवों) के पालक होने के कारण सदा पशुपति कहलाते हैं। आपने ही अन्धकासुर का वध किया है, इसलिये आपका नाम अन्धकघाती है। आपको बारंबार नमस्कार है ।
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