महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 32 श्लोक 36-53
द्वात्रिंशो (32) अध्याय: द्रोणपर्व (संशप्तकवध पर्व )
कितने ही रथ टूट गये, ध्वज कट गये, छत्र पृथ्वी पर गिरा दिये गये और जूए खण्डित हो गये । उन खण्डित हुए आधे जूओं को ही लेकर घोड़े तेजी से भाग रहे थे। कितने ही वीरों की भुजाऍ तलवार सहित काट गिरायी गयीं, कितनों के कुण्डल मण्डित मस्तक धड़ से अलग कर दिये गये। कहीं किसी बलवान हाथी ने रथ को उठाकर फेक दियाऔर वह पृथ्वी पर गिरकर चूर-चूर हो गया। किसी रथी ने नाराच के द्वारा गजराज पर आघात किया और वह धराशायी हो गया । किसी हाथीके वेगपूर्वक आघात करनेपर सवार सहित घोड़ा धरती पर ढेर हो गया । इस प्रकार वहां मर्यादाशून्य अत्यन्त भयंकर एवं महान् युद्ध होने लगा। उस समय सभी सैनिक हा तात ! हा पुत्र ! सखे ! तुम कहां हो ? ठहरों, कहां भागे जा रहे हो ? मारो, लाओ, इसका वध कर डालो –इस प्रकार की बातें कह रहे थे । हास्य, उछल-कूद और गर्जना के साथ उनके मुख से नाना प्रकार की बातें सुनाययी देती थी। मनुष्य, घोड़े और हाथी के रक्त एक-दूसरे से मिल रहे थे ।उस रक्त प्रवाह से वहां की उड़ती हुई भयंकर धूल शान्त हो गयी । उस रक्त राशि को देखकर भीरू पुरूषों पर मोह छा जाता था। किसी वीर ने अपने चक्र के द्वारा शत्रुपक्षीय वीर के चक्र का निवारण करने युद्ध में बाण प्रहार के योग्य अवसर न होने के कारण गदा से ही उसका सिर उड़ा दिया। कुछ लोगों में एक-दूसरे के केश पकड़कर युद्ध होने लगा । कितनेही योद्धाओं में अत्यन्त भयंकर मुक्कों की मार होने लगी । कितने ही शूरवीर उस निराश्रय स्थान में आश्रय ढूँढ़ रहे थे और नखों तथा दॉतों से एक-दूसरे को चोट पहॅुचा रहे थे। उस युद्ध में एक शूरवीर की खगसहित ऊपर उठी हुई भुजा काट डाली गयी । दूसरे की भी धनुष बाण और अकुश सहित बॉह खण्डित हो गयी । वहां एक सैनिक दूसरे को पुकारता था और दूसरा युद्ध से विमुख होकर भागा जा रहा था। किसी दूसरे वीर ने सामने आये हुए अन्य योद्धा के मस्तक को धड़ से अलग कर दिया । यह देख कोई तीसरा वीर बड़े जोर से कोलाहल करता हुआ भागा । उसके उस आर्तनाद से एक अन्य योद्धा अत्यन्त डर गया ।।३०।। कोई अपने ही सैनिकों को और कोई शत्रु योद्धाओं को अपने तीखे बाणों से मार रहा था । उस युद्ध में पर्वतशिखर के समान विशालकाय हाथी नाराचसे मारा जाकर वर्षाकाल में नदी के तद की भॉति धरतीपर गिरा और ढेर हो गया। झरने बहानेवाले पर्वत की भॉति किसी मदस्त्रावी गजराज ने सारथि और अश्वों सहित रथ को पैरों से भूमिपर दबाकर उन सबको कुचल डाला। अस्त्रविद्या में निपुण और खून से लथपथ हुए शूरवीरों को परस्पर प्रहार करते देख बहुत से दुर्बल हृदयवाले भीरू मनुष्यों के मन में मोहका संचार होने लगा। उस समय सेना द्वारा उड़ायी हुई धूलसे व्याप्त होकर सारा जनसमूह उदिग्न हो रहा था, किसी को कुछ नही सूझता था। उस युद्ध में किसी भी नियम या मर्यादा का पालन नहीं हो रहा था। तब सेनापति धृष्टधुम्न ने यही उपयुक्त अवसर है, ऐसा कहते हुए सदा शीघ्रता करनेवाले पाण्डवों को और भी जल्दी करने के लिये प्रेरित किया।
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