श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 11 श्लोक 1-14
दशम स्कन्ध: एकादशो ऽध्यायः(11) (पूर्वार्ध)
गोकुल से वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! वृक्षों के गिरने से जो भयंकर शब्द हुआ था, उसे नन्दबाबा आदि गोपों ने भी सुना। उनके मन में यह शंका हुई कहीं बिजली तो नहीं गिरी! सब-के-सब भयभीत होकर वृक्षों के पास आ गये । वहाँ पहुँचने पर उन लोगों ने देखा कि दोनों अर्जुन के वृक्ष गिरे हुए हैं। यद्यपि वृक्ष गिरने का कारण स्पष्ट था—वहीँ उनके सामने ही रस्सी से बँधा बालक ऊखल खींच रहा था, परन्तु वे समझ न सके’। यह किसका काम है, ऐसी आश्चर्यजनक दुर्घटना कैसे घट गयी ?’— यह सोंचकर वे कातर हो गये, उनकी बुद्धि भ्रमित हो गयी ।
वहाँ कुछ बालक खेल रहे थे। उन्होंने कहा—‘अरे, इसी कन्हैया का तो काम है। यह दोनों वृक्षों के बीच में से होकर निकल रहा था। ऊखल तिरछा हो जाने पर दूसरी ओर से इसने उसे खींचा और वृक्ष गिर पड़े। हमने तो इसमें से निकलते हुए दो पुरुष भी देखे हैं । परन्तु गोपों ने बालकों की बात नहीं मानी। वे कहने लगे—‘एक नन्हा-सा बच्चा इतने बड़े वृक्षों को उखाड़ डाले, यह कभी सम्भव नहीं है।’ किसी-किसी के चित्त में श्रीकृष्ण की पहले की लीलाओं का स्मरण करके सन्देह भी हो आया । नन्दबाबा ने देखा, उनका प्राणों से प्यारा बच्चा रस्सी से बँधा हुआ ऊखल घसीटता जा रहा है। वे हँसने लगे और जल्दी से जाकर उन्होंने रस्सी की गाँठ खोल दी[१]।
सर्वशक्तिमान् भगवान् कभी-कभी गोपियों के फुसलाने से साधारण बालकों समान नाचने लगते। कभी भोले-भाले अनजान बालक की तरह गाने लगते। वे उनके हाथ की कठपुतली—उनके सर्वथा अधीन हो गये । वे कभी उनकी आज्ञा से पीढ़ा ले आते, तो कभी दुसेरी आदि तौलने के बटखरे उठा लाते। कभी खडाऊं ले आते, तो कभी अपने प्रेमी भक्तों को आनन्दित करने के लिए पहलवानों की भाँति ताल ठोंकने लगते । इस प्रकार सर्वशक्तिमान् भगवान् अपनी बाल-लीलाओं से वृजवासियों को आन्दनित करते और संसार में जो लोग उनके रहस्य को जानने-वाले हैं, उनको यह दिखलाते कि मैं अपने सेवकों के वश में हूँ ।
एक दिन कोई फल बेचने वाली आकर पुकार उठी—‘फल लो फल! यह सुनते ही समस्त कर्म और उपासनाओं के फल देने वाले भगवान् अच्युत फल खरीदने के लिए अपनी छोटी-सी अँजुली में अनाज लेकर दौड़ पड़े ।उनकी अँजुली में अनाज तो रास्ते में ही बिखर गया, पर फल बेचने वाली ने उनके दोनों हाथ फल से भर दिये। इधर भगवान् भी उसकी फल रखने वाली टोकरी रत्नों से भर दी ।
तदन्तर एक दिन यमलार्जुन वृक्ष को तोड़ने वाले श्रीकृष्ण और बलराम बालकों के साथ खेलते-खेलते यमुनातट पर चले गये और खेल में ही रम गये, तब रोहिणीदेवी ने उन्हें पुकारा ‘ओ कृष्ण! ओ बलराम! जल्दी आओ’ । परन्तु रोहिणी के पुकारने पर भी वे आये नहीं; क्योंकि उनका मन खेल में लग गया था। जब बुलाने पर भी वे दोनों बालक नहीं आये, तब रोहिणीजी ने वात्सल्यस्नेहमयी यशोदाजी को भेजा । श्रीकृष्ण और बलराम ग्वालबालकों के साथ बहुत देर से खेल रहे थे, यशोदाजी ने जाकर उन्हें पुकारा। उस समय पुत्र के प्रति वात्सल्यस्नेह के कारण उनके स्तनों में से दूध चुचुआ रहा था ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नन्दबाबा इसलिये हँसे कि कन्हैया कहीं यह सोचकर डर न जाय कि जब मा ने बाँध दिया, तब पिता कहीं आकर पीटने न लगें।
माता ने बाँधा, और पिता ने छोड़ा। भगवान् श्रीकृष्ण की लीला से यह बात सिद्ध हुई कि उनके स्वरुप में बन्धन और मुक्त की कल्पना करने वाले दूसरे ही हैं। वे स्वयं न बद्ध हैं, न मुक्त हैं।
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