महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 287 श्लोक 14-32

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सप्‍ताशीत्‍यधिकद्विशततम (287) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्‍ताशीत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 14-32 का हिन्दी अनुवाद

जो साधारण मनुष्‍य हैं, वे उन आश्रमों के वा‍स्‍तविक अभिप्राय को भलीभाँति संशयरहित नहीं जान पाते, किंतु उनसे भिन्‍न जो तत्‍वज्ञ हैं, वे इन आश्रमों के परमतत्‍व को ठीक-ठीक समझते हैं । जो अच्‍छी तरह कल्‍याण करने वाला साधन होता है, वह सर्वथा संशयरहित होता है। सुहृदों पर अनुग्रह करना, शत्रुभाव रखने वाले दुष्‍टों को दण्‍ड देना तथा धर्म, अर्थ और काम का संग्रह करना - इसे मनीषी पुरूष श्रेय कहते हैं । पापकर्म से दूर रहना, निरन्‍तर पुण्‍यकर्मों में लगे रहना और सत्‍यपुरूषों के साथ रहकर सदाचार का ठीक-ठीक पालन करना - यह संशयरहित कल्‍याण का मार्ग है । सम्‍पूर्ण प्राणियों के प्रति कोमलता का बर्ताव करना, व्‍यवहार में सरल होना तथा मीठे वचन बोलना - यह भी कल्‍याण का संदेहरहित मार्ग है । देवताओं, पितरों और अतिथियों को उनका भाग देना तथा भरण-पोषण करने योग्‍य व्‍यक्तियों का त्‍याग न करना - यह कल्‍याण का निश्चित साधन है । सत्‍य बोलना भी श्रेयस्‍‍कर है; परंतु सत्‍य को यथार्थरूप से जानना कठिन है। मैं तो उसी को सत्‍य कहता हूँ, जिससे प्राणियों का अत्‍यन्‍त हित होता हो । अहंकार का त्‍याग, प्रमाद को रोकना, संतोष और एकान्‍तवास- यह सुनिश्चित श्रेय कहलाता है । धर्माचरणपूर्वक वेद और वेदांगों का स्‍वाध्‍याय करना तथा उनके सिद्धान्‍त को जानने की इच्‍छा को जगाये रखना निस्‍संदेह कल्‍याण का साधन है । जिसे कल्‍याण प्राप्ति की इच्‍छा हो, उस मनुष्‍य को किसी तरह भी शब्‍द, स्‍पर्श, रूप, रस और गन्‍ध- इन विषयों का अधिक सेवन नहीं करना चाहिये । कल्‍याण चाहने वाला पुरूष रात में घूमना, दिनमें सोना, आलस्‍य, चुगली, मादक वस्‍तु का सेवन, आहार-विहार का अधिक मात्रा में सेवन और उसका सर्वथा त्‍याग - ये सब बातें त्‍याग दे । दूसरों की निन्‍दा करके अपनी श्रेष्‍ठता सिद्ध करने का प्रयत्‍न न करे। साधारण मनुष्‍यों की अपेक्षा जो अपनी उत्‍कृष्‍टता है, उसे अपने गुणोद्वारा ही सिद्ध करे (बातों से नहीं) । गुणहीन मनुष्‍य ही अधिकतर अपनी प्रशंसा किया करते हैं। वे अपने में गुणों की कमी देखकर दूसरे गुणवान पुरूषों के गुणों में दोष बताकर उनपर आक्षेप किया करते हैं । यदि उनको उत्‍तर दिया जाय तो फिर वे घमंड में भरकर अपने-आपको महापुरूषों से भी अधिक गुणवान मानने लगें । परंतु जो दूसरे किसी की निन्‍दा तथा अपनी प्रशंसा नहीं करता, ऐसा उत्‍तम गुणसम्‍पन्‍न विद्वान पुरूष ही महान यश का भागी होता है । फूलों की पवित्र एवं मनोरम सुगन्‍ध बिना कुछ बोले ही महक उठती है। निर्मल सूर्य अपनी प्रशंसा किये बिना ही आकाश में प्रकाशित होने लगते हैं । इस प्रकार संसार में और भी बहुत-सी ऐसी बुद्धि से रहित वस्‍तुएँ हैं, जो अपनी प्रशंसा नहीं करती हैं, किंतु अपने यश से जगमगाती रहती हैं । मूर्ख मनुष्‍य केवल अपनी प्रशंसा करने से ही जगत में ख्‍याति नहीं पा सकता । विद्वान पुरूष गुफा में छिपा रहे तो भी उसकी सर्वत्र प्रसिद्धि हो जाती है । बुरी बात जोर-जोर से कही गयी हो तो भी वह शून्‍य में विलीन हो जाती है, लोक में उसका आदर नहीं होता है; किंतु अच्‍छी बात धीरे से कही जाय तो भी वह संसार में प्रकाशित होती है - उसका आदर होता और प्रभाव बढता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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