महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 287 श्लोक 33-48

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सप्‍ताशीत्‍यधिकद्विशततम (287) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्‍ताशीत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 33-48 का हिन्दी अनुवाद

घमंडी मूर्खों की कही हुई असार बातें उनके दूषित अन्‍त:करण का ही प्रदर्शन कराती हैं, ठीक उसी तरह जैसे सूर्य सूर्यकान्‍तमणि के योग से अपने दाहक अग्निरूप को ही प्रकट करता है । इस कारण कल्‍याण की इच्‍छा रखने वाले साधु पुरूष अनेक शास्‍त्रों के अध्‍ययन से नाना प्रकार की प्रज्ञा (उत्‍तम बुद्धि) का ही अनुसंधान करते हैं । मुझे तो सभी प्राणियों के लिये प्रज्ञा का लाभ ही उत्‍तम जान पड़ता है । बुद्धिमान पुरूष ज्ञानवान होने पर भी बिना पूछे किसी को कोई उपदेश न करे। अन्‍यायपूर्वक पूछने पर भी किसी के प्रश्‍न का उत्‍तर न दे। जड़ की भाँति चुपचाप बैठा रहे । मनुष्‍य को सदा धर्म में लगे रहने वाले साधु-महात्‍माओं तथा स्‍वधर्मपरायण उदार पुरूषों के समीप निवास करने की इच्‍छा रखनी चाहिये । जहाँ चारों वर्णों के धर्मों का उल्‍लघंन होता हो, वहाँ कल्‍याण की इच्‍छा वाले पुरूष को किसी तरह भी नहीं रहना चाहिये । किसी कर्म का आरम्‍भ न करनेवाला और जो कुछ मिल जाय, उसी से जीवन-निर्वाह करने वाला पुररूष भी यदि पुण्‍यात्‍माओं के समाज में रहे तो उसे निर्मल पु्ण्‍य की प्राप्ति होती है और पापियों के संसर्ग में रहे तो वह पाप का ही भागी होता है । जैसे जल, अग्नि और चन्‍द्रमा की किरणों के संसंर्ग में आने पर मनुष्‍य क्रमश: शीत, उष्‍ण और सुखदायी स्‍पर्श का अनुभव करता है, उसी प्रकार हम पुण्‍यात्‍मा और पापियों के संग से पुण्‍य और पाप दोनों के स्‍पर्श का प्रत्‍यक्ष अनुभव करते हैं । जो विघसाशी (भृत्‍यवर्ग ओर अतिथि आदि को भेजन कराने के बाद बचा हुआ भोजन करने वाले ) हैं, वे तिक्‍त-मधुर रस या स्‍वाद की आलोचना न करते हुए अन्‍न ग्रहण करते हैं; किंतु जो अपनी रसना का विषय समझकर स्‍वादु और अस्‍वादु का विचार रखते हुए भोजन करते हैं, उन्‍हें कर्मपाश में बॅंधा हुआ ही समझना चाहिये । जहाँ ब्राह्मण अनादर एवं अन्‍यायपूर्वक धर्म-शास्‍त्रविषयक प्रश्‍न करने वाले पुरूषों को धर्म का उपदेश करता हो, आत्‍मपरायण साधक को उस देश का परित्‍याग कर देना चाहिये । जहाँ गुरू और शिष्‍य का व्‍यवहार सुव्‍यस्थित, शास्‍त्र-सम्‍मत एवं यथावत रूप से चलता है, कौन उस देश का परित्‍याग करेगा ? जहाँ के लोग बिना किसी आधार के ही विद्वान पुरूषों पर निश्चित रूप से दोषारोपण करते हों, उस देश में आत्‍मसम्‍मान की इच्‍छा रखने वाला कौन मनुष्‍य निवास करेगा ? जहाँ लालची मनुष्‍यों ने प्राय: धर्म की मर्यादाएँ तोड़ डाली हों, जलते हुए कपड़े की भाँति उस देश को कौन नहीं त्‍याग देगा ? परंतु जहाँ के लोग मात्‍सर्य और शंका से रहित होकर धर्म का आचरण करते हों, वहाँ पुण्‍यशील साधु पुरूषों के पास अवश्‍य निवास करे । जहाँ के मनुष्‍य धन के लिये धर्म का अनुष्‍ठान करते हों, वहाँ उनके पास कदापि न रहे; क्‍योंकि वे सब-के सब पापाचारी होते हैं । जहाँ जीवन की रक्षा के लिये लोग पापकर्म से जीविका चलाते हों, सर्पयुक्‍त घर के समान उस स्‍थान से तुरंत हट जाना चाहिये । अपनी उन्‍नति चाहने वाले साधक को चाहिये कि जिस पापकर्म के संस्‍कारों से युक्‍त हुआ मनुष्‍य खाटपर पड़कर दु:ख भोगता है, उस कर्म को पहले से ही न करें ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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