महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 35 श्लोक 1-16

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पंचत्रिंश (35) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: पंचत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन से मोक्ष धर्म का वर्णन- गुरु और शिष्य के संवाद में ब्रह्मा और महर्षियों के प्रश्नोत्तर

अर्जुन बोले- भगवन! इस समय आपकी कृपा से सूक्ष्म विषय के श्रवण में मेरी बुद्धि लग रही है, अत: जान ने योग्य परब्रह्म के स्वरूप की व्याख्या कीजिये। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! इस विषय को लेकर गुरु और शिष्य में जो मोक्ष विषयक संवाद हुआ था, वह प्राचीन इतिहास बतलाया जा रहा है। एक दिन उत्तम व्रत का पालन करने वाले एक ब्रह्मवेत्ता आचार्य अपने आसन पर विराजमान थे। परंतप! उस समय किसी बुद्धिमान शिष्य ने उनके पास जाकर निवेदन किया- ‘भगवन्! मैं कलयाण मार्ग में प्रवृत्त होकर आपकी शरण में आया हूँ और आपके चरणों में मस्तक झुकाकर याचना करता हूँ कि मैं जो कुछ पूछूँ, उसका उत्तर दीजिये। मैं जानना चाहता हूँ कि श्रेय क्या है?’। पार्थ! इस प्रकार कहने वाले उस शिष्य से गुरु बोले- ‘विप्र! तुम्हारा जिस विषय में संशय है, वह सब मैं तुम्हें बताऊँगा’। महाबुद्धिमान कुरुरेष्ठ अर्जुन! गुरु के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर उस गुरु के प्यारे शिष्य ने हाथ जोड़कर जो कुछ पूछा, उसे सुनो। शिष्य बोला- विप्रवर! मैं कहाँ से आया हूँ और आप कहाँ से आये हैं? जगत के चराचर जीव कहाँ से उत्पन्न हुए हैं? जो परमतत्त्व है, उसे आप यथार्थरूप से बताईये। विप्रवर! सम्पूर्ण जीव किससे जीवन धारण करते हैं? उनकी अधिक से अधिक आयु कितनी है? सत्य और तप क्या? सत्पुरुषों ने किन गुणों की प्रशंसा की है? कौन कौन से मार्ग कल्याण करने वाले हैं? सर्वोत्तम सुख क्या है? और पाप किसे कहते हैं? श्रेष्ठ व्रत का आचरण करने वाले गरुदेव! मेरे इन प्रश्नों का आप यथार्थ रूप से उत्तर देने में समर्थ हैं। धर्मज्ञों में श्रेष्ठ विप्रर्षे! यह सब जानने के लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा है। इस विषय में इन प्रश्नों का तत्त्वत: यथार्थ उत्तर देने में आपसे अतिरिक्त दूसरा कोई समर्थ नहीं है। अत: आप ही बतलाइये, क्योंकि संसार में मोक्ष धर्मों के तत्त्व के ज्ञान में आप कुशल बताये हैं। हम संसार से भयभीत और मोक्ष के इच्छुक हैं। आपके सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं, जो सब प्रकार की शंकाओं का निवारण कर सके। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- कुरुकुल श्रेष्ठ शत्रुदमन अर्जुन! वह शिष्य सब प्रकार से गुरु की शरण में आया था। यथोचित रीति से प्रश्न करता था। गुणवान् और शान्त था। छाया की भाँति साथ रहकर गुरु का प्रिय करता था तथा जितेन्द्रिय, संयमी और ब्रह्मचारी था। उसके पूछने पर मेधावी एवं व्रतधारी गुरु ने पूर्वोक्त सभी प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर दिया। गुरु बोल- बेटा! ब्रह्माजी ने वेद विद्या का आश्रय लेकर तुम्हारे पूछे हुए इन सभी प्रश्नों का उत्तर पहले से ही दे रखा है तथा प्रधान-प्रधान ऋषियों ने उसका सदा ही सेवन किया है। उन प्रश्नों के उत्तर में परमार्थ विषयक विचार किया गया है। हम ज्ञान को ही परब्रह्म और संन्यास को उत्तम तप जानते हैं। जो अबाधित ज्ञानतत्त्व को निश्चय पूर्वक जानकर अपने को सब प्राणियों के भीतर स्थित देखता है, वह सर्वगति (सर्वव्यापक) माना जाता है।













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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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