महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 179 श्लोक 1-15

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एकोनाशीत्यधिकशततम (179) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनाशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

प्रहाद और अवधूत का संवाद--आजगर–वृतिकी प्रशंसा

राजा युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! आप सदाचार के स्वरूप जानने वाले हैं। कृपया यह बताइये, किस तरह के आचार को अपनाकर मनुष्‍य शोकरहित हो इस पृथ्‍वी पर विचरण कर स‍कता है? और इस जगत् में कौन–सा कर्म करके वह उत्तम गति पा सकता है? भीष्‍म जी कहते हैं- राजन्! इस विषय में भी प्रहला्द तथा अजगरवृत्ति से रहने वाले एक मुनि के संवाद रूप प्राचीन इतिहास का दृष्‍टांत दिया जाता है। एक सुदृढचित, दु:ख–शोक से रहित तथा बुद्धिसम्‍मत ब्राह्मण को पृथ्‍वी पर विचरते देख बुद्धिमान राजा प्रह्लाद ने उससे इस प्रकार पूछा। प्रह्लाद बोले- ब्रह्मन्! आप स्‍वस्‍थ, शक्तिमान्, मृदु, जितेन्द्रिय, कर्मारम्‍भ से दूर रहने वाले, दूसरों के दोषों पर दृष्टि न डालने वालें, सुदंर और मधुर वचन बोलने वाले, निर्भिक, प्रतिभाशाली, मेधावी तथा तत्‍वज्ञ बोलने वाले, निर्भीक, प्रतिभाशाली, मेधावी तथा तत्‍वज्ञ होकर भी बालकों के समान विचर रहे है। न आप कोई लाभ चाहते हैं और न हानि होने पर उसके लिये शोक ही करते है। ब्रह्मन्! आप नित्‍यतृप्‍त से रहते हुए न किसी वस्‍तु को प्रिय मानते हैं और न अप्रिय। सारी प्रजा काम–क्रोध आदि के प्रवाह में पड़कर बही जा रही है, परंतु आप उधर से उदासीन– जैसे जान पड़ते हैं तथा धर्म, अर्थ एवं काम–संबंधी कार्यो के प्रति भी निश्‍चेष्‍ट-से दिखायी देते हैं। धर्म और अर्थ-संबंधी कार्यों का आप अनुष्‍ठान नहीं करते हैं, काम में भी आप की प्रवृत्ति नहीं है। आप इन्द्रियों के सम्‍पूर्ण विषयों की उपेक्षा करके साक्षी के समान मुक्‍तरूप से विचरते है। मुने! आपके पास कौन–सी ऐसी बुद्धि, कैसा शास्‍त्रज्ञान अथवा कौन–सी वृत्ति है, जिससे आपका जीवन ऐसा बन गया है? ब्रह्मन्! आपके मत से इस जगत् में मेरे लिये जो श्रेय का साधन हो, उसे शीध्र बतावें। भीष्‍म जी कहते हैं– राजन्! प्रह्लाद के इस प्रकार पूछने पर लोक–धर्म के विधान को जानने वाले उन मेधावी मुनिने उनसे मधुर एवं सार्थक वाणी में इस प्रकार कहा। ‘प्रह्लाद! देखों, इस जगत के प्राणियों की उत्‍पति, वृद्धि, हास और विनाश कारणरहित सत्‍स्‍वरूप परमात्‍मा से ही हुए हैं, इस कारण मैं उनके लिये न तो हर्ष प्रकट करता हूं ओर न व्‍यथित ही होता हूं । ‘ऐसा समझना चाहिये, पूर्वकृत कर्मानुसार बने हुए स्‍वभाव से ही प्राणियों की वर्तमान प्रवृतियां प्रकट हुई है, अत: समस्‍त प्रजा स्‍वभाव में ही तत्‍पर है, उनका दूसरा कोई आश्रय नहीं हैं । इस रहस्‍य को समझकर मनुष्‍य को किसी भी परिस्थिति में संतुष्‍ट नहीं होना चाहिये। ‘प्रह्लाद! देखो, जितने संयोग हैं, उनका पर्यवसान वियोग में ही होता है और जितने संचय है, उनकी समाप्ति विनाश में ही होती है। यह सब देखकर मैं कहीं भी अपने मन को नहीं लगाता हूं। ‘जो गुणयुक्‍त सम्‍पूर्ण भूतों को नाशवान् देखता है तथा उत्‍पति और प्रलय के तत्त्‍व को जानता है, उसके लिये यहां कौन–सा कार्य अवशिष्‍ट रह जाता है? ‘महासागर के जल में पैदा होने वाले विशाल शरीर वाले तिमि आदि मत्‍स्‍यों तथा छोटे–छोटे कीड़ों का भी बारी–बारी से विनाश होता देखता हूं। ‘असुरराज! पृथ्‍वी पर भी जितने स्‍थावर–जंगम प्राणी हैं, उन सबकी मृत्‍यु मुझे स्‍पष्‍ट दिखायी दे रही है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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