महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 59 श्लोक 120-136

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एकोनषष्टित्तम (59) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व : एकोनषष्टित्तम अध्याय: श्लोक 120-136 का हिन्दी अनुवाद

पाण्डुनन्दन ! वेनपुत्र पृथु के चिन्तन करते ही उनकी सेवा में घोड़े, रथ, हाथी और करोड़ों मनुष्य प्रकट हो गये। उनके राज्य में किसी को बुढ़ापा, दुर्भिक्ष तथा आधि-व्याधि का कष्ट नहीं था। राजा की ओर से रक्षा की समुचित व्यवस्था होने के कारण वहाँ कभी किसी को सर्पों, चोरों तथा आपस के लोगों से भय नहीं प्राप्त होता था। जिस समय वे समुंद्र में होकर चलते थे, उस समय उसका जल स्थिर हो जाता था। पर्वत उन्हें रास्ता दे देते थे, उनके रथ की ध्वजा कभी टूटी नहीं। उन्होंने इस पृथ्वी से सत्रह प्रकार के धान्यों का दोहन किया था, यक्षों, राक्षसों और नागों मे से जिसको जो वस्तु अभीष्ट थी, वह उन्‍होंने पृथ्वी से दुह ली थी। उन महात्मा ने सम्पूर्ण जगत् में धर्मं की प्रधानता स्थापित कर दी थी। उन्होंने समस्त प्रजाओं का रंजन किया था; इसलिये वे ’राजा’ कहलाते थे। ब्राह्मणों को क्षति से बचाने के कारण वे क्षत्रिय कहे जाने लगे। उन्होंनेे धर्मं के द्वारा इस भूमि को प्रथित किया-इसकी ख्याति बढ़ायी; इसलिये बहुसंख्यक मनुष्यों द्वारा यह ’पृथ्वी’ कहलायी। भरतनन्दन ! स्वयं सनातन भगवान् विष्णु ने उनके लिये यह मर्यांदा स्थापित की कि ’राजन् ! कोई भी तुम्हारी आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकेगा’। राजा पृथु की तपस्या से प्रसन्न हो भगवान् विष्णु ने स्वयं उनके भीतर प्रवेश किया था। समस्त नरेशों में से राजा पृथु को ही यह सारा जगत् देवता के समान मस्तक झुकाता था। नरेश्वर! इसलिये तुम्हें गुप्तचर नियुक्त करके राज्य की अवस्था पर दृष्टिपात करते हुए सदा दण्डनीति के द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र की रक्षा करनी चाहिये, जिससे कोई इसपर आक्रमण करने का साहस न कर सके। राजेन्द्र! चित्त और क्रिया द्वारा समभाव रखने वाले राजा का किया हुआ शुभ कर्मं प्रजा के भले के लिये ही होता है। उसके दैवी गुण के सिवा औैर क्या कारण हो सकता है, जिससे सारा देश उस एक ही व्यक्ति के अधीन रहे ? उस समय भगवान् विष्णु के ललाट से एक सुवर्णमय कमल प्रकट हुआ, जिससे बुद्धिमान धर्मं की पत्नी श्रीदेवी का प्रादुर्भाव हुआ। पाण्डुनन्दन! धर्मं के द्वारा श्रीदेवी से अर्थ की उत्पत्ति हुई। तदनन्तर धर्मं, अर्थ और श्री-तीनों ही राज्य में प्रतिष्ठित हुए। तात! पुण्य का क्षय होने पर मनुष्य स्वर्ग लोक से पृथ्वी पर आता और दण्डनीति विशारद राजा के रूप में जन्म लेता हैं। वह मनुष्य इस भूतल पर भगवान् विष्णु की महत्ता से युक्त तथा बुद्धि सम्पन्न हो विशेष माहात्म्य प्राप्त कर लेता हैं। तदनन्तर उसे देवताओं द्वारा राजा के पद पर स्थापित हुआ मानकर कोई भी उसकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता। यह सारा जगत् उस एक ही व्यक्ति के वश में रहता है, उसके ऊपर यह जगत् अपना शासन नहीं चला सकता। राजेन्द्र! शुभ कर्मं का परिणाम शुभ ही होता है, कभी तो अन्य मनुष्यों के समान होने पर भी एकमात्र राजा की आज्ञा में यह सारा जगत् स्थित रहता हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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