महाभारत सभा पर्व अध्याय 59 श्लोक 1-15

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एकोनषष्टितम (59) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: एकोनषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

जूए के अनौचित्‍य के सम्‍बन्‍ध में युधिष्ठिर और शकुनि का संवाद

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! युधिष्ठिर आदि कुन्‍तीकुमार उस सभा में पहुँचकर सब राजाओं से मिले । अवस्‍थाक्रम के अनुसार समस्‍त पूज्‍यनीय राजाओं का बारी-बारी से सम्‍मान करके सबसे मिलने-जुलने के पश्‍चात् वे यथायोग्‍य सुन्‍दर रमणीय गलीचों से युक्‍त विचित्र आसनों पर बैठे। उनके एवं सब नरेशों के बैठ जाने पर वहाँ सुबलकुमार शकुनि ने युधिष्ठिर से कहा। शकुनि बोला—महाराज युधिष्ठिर ! सभा में पासे फेंकने-वाला वस्‍त्र बिछा दिया गया है, सब आपकी ही प्रतीक्षा कर रहे हैं । अब पासे फँककर हूआ खेलने का अवसर मिलना चाहिये। युधिष्ठिर ने कहा—राजन् ! जूआ तो एक प्रकार का छल है तथा पाप का कारण है ! इसमें ने तो क्षत्रियोचित पराक्रम दिखाया जा सकता है औ न इसकी कोई निश्चित नीति ही है। फिर तुम द्यूत की प्रशंसा क्‍यों करते हो। शकुने ! जुआरियों का छल-कपट में ह –सम्‍मान होता है; सज्‍जन पुरूष वैसे सम्‍मान की प्रशंसा नहीं करते । अत: तुम क्रूर मनुष्‍य की भाँति अनुचित मार्ग से हमें जीतने की चेष्‍टा न करो । शकुनि बोला – जिस अंक पर पासा पड़ता है, उसे जो पहले ही समझ लेता, जो शठता का प्रतीकार करना जानता है एवं पासे फेंकने आदि समस्‍त व्‍यापार में उत्‍साहपूर्वक लगा रहता है तथा जो परम बुद्धिमान पुरूष द्यूतक्रीडा विषयक सब बातों की जानकारी रखता है, वही जूए का असली खिलाड़ी है; वह द्यूतक्रीडा में दूसरों की सारी शठतापूर्ण चेष्‍टाओं को सह लेता है । कुन्‍तीनन्‍दन ! यदि पासा विपरीत पड़ जाय तो हम खिलाडि़यों में से एक पक्ष को पराजित कर सकता है; अत: जय-पराजय दैवाधीन पासों के ही आश्रित है । उसीसे पराजय-रूप दोष की प्राप्ति होती है । हारने की तो शंका हमें भी है, फिर भी हम खेलते हैं । अत: भूमिपाल ! आप शंका न कीजिये, दाँव लगाइये, अब विलम्‍ब न कीजिये। युधिष्ठिरने कहा—मुनिश्रेष्‍ठ असित-देवलने, जो सदा इन लोक द्वारा में भ्रमण करते करते हैं, ऐसा कहा है कि जुआरियों के साथ शठतापूर्वक जो जूआ खेला जाता है, पाप है । धर्मानुकूल विजय तो युद्ध में ही प्राप्‍त होती है; अत: क्षत्रियों के लिये युद्ध ही उत्तम है, जूआ खेलना नहीं। श्रेष्‍ठ पुरूष वाणी द्वारा किसी के प्रति अनुचित शब्‍द नहीं निकालते तथा कपटपूर्ण बर्ताव नहीं करते । कुटिलता और शठता से रहित युद्ध ही सत्‍पुरूषों व्रत है । शकुने ! हम लोग जिस धन से अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्माणों की रक्षा करने का ही प्रयत्‍न करते हैं, उसको तुम जूआ खेलकर हम लोगों से हड़पने की चेष्‍टा न करो। मैं धूर्ततापूर्ण बर्ताव के द्वारा सुख अथवा धन पाने की इच्‍छा नहीं करता; क्‍योंकि जुआरी के कार्य को विद्वान् पुरूष अच्‍छा नहीं समझते है। शकुनि बोला–युधष्ठिर ! श्रोत्रिय विद्वान् दूसरे श्रेत्रिय विद्वनों के पास जब उन्‍हें जीतने के लिये जाता है, तब शठता से ही काम लेता है । विद्वान् अविद्वानों को शठता से ही पराजित करता है; परंतु इसे जनसाधारण शठता नहीं कहते। धर्मराज ! जो द्यूतविद्या में पूर्ण शिक्षित है, वह अशिक्षितों- पर शठता से ही विजय पाता है । विद्वान् पुरूष अविद्वानों को जो परास्‍त करता है, वह भी शठता ही है; किंतु लोग उसे शठता नहीं कहते।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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