श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 11 श्लोक 1-8
एकादश स्कन्ध: एकादशोमोऽध्यायः (11)
बद्ध, मुक्त और भक्जनों के लक्षण
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—प्यारे उद्धव! आत्मा बद्ध है या मुक्त है, इस प्रकार की व्याख्या या व्यवहार मेरे अधीन रहने वाले सत्वादि गुणों की उपाधि से ही होता है। वस्तुतः—तत्वदृष्टि से नहीं। सभी गुण माया-मूलक हैं—इन्द्रजाल हैं—जादू के खेल के समान हैं। इसलिये न मेरा मोक्ष है, न तो मेरा बन्धन ही है । जैसे स्वप्न बुद्धि का विवर्त है—उसमें बिना हुए ही भासता है—मिथ्या है, वैसे ही शोक-मोह, सुख-दुःख, शरीर की उत्पत्ति और मृत्यु—यह सब संसार का बखेड़ा माया (अविद्या) के कारण प्रतीत होने पर भी वास्तविक नहीं है । उद्धव! शरीरधारियों को मुक्ति का अनुभव कराने वाली आत्म विद्या और बन्धन का अनुभव कराने वाली अविद्या—ये दोनों ही मेरी अनादि शक्तियाँ हैं। मेरी माया से ही इनकी रचना हुई है। इनका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है । भाई! तुम तो स्वयं बड़े बुद्धिमान हो, विह्कार करो—जीव तो एक ही है। यह व्यवहार के लिये ही मेरे अंश के रूप में कल्पित हुआ है, वस्तुतः मेरा स्वरुप ही है। आत्मज्ञान से सम्पन्न होने पर उसे मुक्त कहते हैं और आत्मा का ज्ञान न होने से बद्ध। और यह अज्ञान अनादि होने से बन्धन भी अनादि कहलाता है । इस प्रकार मुझ एक ही धर्मीं में रहने पर भी जो शोक और आनन्द रूप विरुद्ध धर्म वाले जान पड़ते हैं, उन बद्ध और मुक्त जीव का भेद मैं बतलाता हूँ । (वह भेद दो प्रकार है—एक तो नित्य-मुक्त ईश्वर से जीव का भेद, और दूसरा मुक्त-बद्ध जीव का भेद। पहला सुनो)—जीव और ईश्वर बद्ध और मुक्त के भेद से भिन्न-भिन्न होने पर भी एक ही शरीर में नियन्ता और नियन्त्रित के रूप से स्थित हैं। ऐसा समझो कि शरीर एक वृक्ष है, इसमें ह्रदय का घोंसला बनाकर जीव और ईश्वर नाम के दो पक्षी रहते हैं। वे दोनों चेतन होने होने के कारण समान हैं और कभी न बिछुड़ने के कारण सखा हैं। इनके निवास करने का कारण केवल लीला ही है। इतनी समानता होने पर भी जीव तो शरीर रुप वृक्ष के फल सुख-दुःख आदि भोगता है, परन्तु ईश्वर उन्हें न भोगकर कर्मफल सुख-दुःख आदि से असंग और उनका साक्षीमात्र रहता है। अभोक्ता होने पर भी ईश्वर की यह विलक्षणता है कि वह ज्ञान, ऐश्वर्य, आनन्द और सामर्थ्य आदि में भोक्ता जीव से बढ़कर है । साथ ही एक यह भी विलक्षणता है कि अभोक्ता ईश्वर तो अपने वास्तविक स्वरुप और इसके अतिरिक्त जगत् को भी जानता है, परन्तु भोक्ता जीव न अपने वास्तविक रूप को जानता है और न अपने से अतिरिक्त को! इन दोनों में जीव तो अविद्या से युक्त होने के कारण नित्य बद्ध है और ईश्वर विद्यास्वरुप होने होने के कारण नित्य मुक्त है । प्यारे उद्धव! ज्ञान सम्पन्न पुरुष भी मुक्त ही हैं; जैसे स्वप्न टूट जाने पर जगा हुआ पुरुष स्वपन के स्मर्यमाण शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं रखता, वैसे ही ज्ञानी पुरुष सूक्ष्म और स्थूल-शरीर में रहने पर भी उनसे किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखता, परन्तु अज्ञानी पुरुष वास्तव में शरीर से कोई सम्बन्ध न रखने पर भी अज्ञान के कारण शरीर में ही स्थित रहता है, जैसे स्वप्न देखने वाला पुरुष स्वप्न देखते समय स्वाप्निक शरीर से बँध जाता है ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-