श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 1-11

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एकादश स्कन्ध: द्वितीयोऽध्यायः (2)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वितीयोऽध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


वसुदेवजी के पास श्रीनारदजी का आना और उन्हें राजा जनक तथा नौ योगीश्वरों का संवाद सुनाना श्रीशुकदेवजी कहते हैं—कुरुनन्दन! देवर्षि नारद के मन में भगवान् श्रीकृष्ण की सन्निधि में रहने की बड़ी लालसा थी। इसलिए वे श्रीकृष्ण के निज बाहुओं से सुरक्षित द्वारका में—जहाँ दक्ष आदि के शाप का कोई भय नहीं था, विदा कर देने पर भी पुनः-पुनः आकर प्रायः रहा ही करते थे । राजन्! ऐसा कौन प्राणी है, जिसे इन्द्रियाँ तो प्राप्त हों और वह भगवान् के ब्रम्हा आदि बड़े-बड़े देवताओं के भी उपास्य चरणकमलों की दिव्य गन्ध, मधुर मकरन्द-रस, अलौकिक रूपमाधुरी, सुकुमार स्पर्श और मंगलमय ध्वनि का सेवन करना न चाहे ? क्योंकि यह बेचारा प्राणी सब ओर से मृत्यु से ही घिरा हुआ है । एक दिन की बात है, देवर्षि नारद वसुदेवजी के यहाँ पधारे। वसुदेवजी ने उनका अभिवादन किया तथा आराम से बैठ जाने पर विधिपूर्वक उनकी पूजा की और इसके बाद पुनः प्रणाम करके उनसे यह बात कही । वसुदेवजी ने कहा—संसार में माता-पिता का आगमन पुत्रों के लिये और भगवान् की ओर अग्रसर होने वाले साधु-संतों का पदार्पण प्रपंच में उलझे हुए दीन-दुःखियों के लये बड़ा ही सुखकर और बड़ा ही मंगलमय होता है। परन्तु भगवन! आप तो स्वयं भगवन्मय, भगवत्स्वरूप हैं। आपका चलना-फिरना तो समस्त प्राणियों के कल्याण के लिये ही होता है । देवताओं के चरित्र भी कभी प्राणियों के लिये दुःख के हेतु, तो कभी सुख के हेतु बन जाते हैंव् परन्तु जो आप-जैसे भगवत्प्रेमी पुरुष हैं—जिनका ह्रदय, प्राण, जीवन, सब कुछ भगवन्मय हो गया है—उनकी तो प्रत्येक चेष्टा समस्त प्राणियों के कल्याण के लिये ही होती है । जो लोग देवताओं का जिस प्रकार भजन करते हैं, देवता भी परछाईं के समान ठीक उसी रीति से भजन करने वालों को फल देते हैं; क्योंकि देवता कर्म के मन्त्री हैं, अधीन हैं। परन्तु सत्पुरुष दीनवत्सल होते हैं अर्थात् जो सांसारिक सम्पत्ति एवं साधन से भी हीन हैं, उन्हें अपनाते हैं । ब्रम्हन्! (यद्यपि हम आपके शुभागमन और शुभ दर्शन से ही कृतकृत्य हो गये हैं) तथापि आपसे उन धर्मों के—साधनों के सम्बन्ध में प्रश्न कर रहे हैं, जिनको मनुष्य श्रद्धा से सुन भर ले तो इस सब ओर से भयदायक संसार से मुक्त हो जाय । पहले जन्म में मैंने मुक्ति देने वाले भगवान् की आराधना तो की थी, परन्तु इसलिए नहीं कि मुझे मुक्ति मिले। मेरी आराधना का उद्देश्य था कि वे मुझे पुत्ररूप में प्राप्त हों। उस समय मैं भगवान् की लीला से मुग्ध हो रहा था । सुव्रत! अब आप मुझे ऐसा उपदेश दीजिये जिससे मैं इस जन्म-मृत्युरूप भयावह संसार से—जिससे दुःख भी सुख का विचित्र और मोहक रूप धारण करके सामने आते हैं—अनायास ही पार हो जाऊँ । श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन्! बुद्धिमान वसुदेवजी ने भगवान् के स्वरुप और गुण आदि के श्रवण के अभिप्राय से ही यह प्रश्न किया था। देवर्षि नारद उनका प्रश्न सुनकर भगवान् अचिन्त्य अनन्त कल्याणमय गुणों के स्मरण में तन्मय हो गये और प्रेम एवं आनन्द में भरकर वसुदेवजी से बोले । नारदजी ने कहा—यदुवंशशिरोमणे! तुम्हारा यह निश्चय बहुत ही सुन्दर है; क्योंकि यह भागवत धर्म के सम्बन्ध में है, जो सारे विश्व को जीवन-दान देने वाला है, पवित्र करने वाला है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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