श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 53 श्लोक 32-48

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दशम स्कन्ध: त्रिपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः (53) (उत्तरार्धः)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः श्लोक 32-48 का हिन्दी अनुवाद

राजा भीष्मक ने सुना कि भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी मेरी कन्या का विवाह देखने के लिये उत्सुकतावश यहाँ पधारे हैं। तब तुरही, भेरी आदि बाजे बजवाते हुए पूजा की सामग्री लेकर उन्होंने उनकी अगवानी की । और मधुपर्क, निर्मल वस्त्र तथा उत्तम-उत्तम भेंट देकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की । भीष्मकजी बड़े बुद्धिमान थे। भगवान् के प्रति उनकी बड़ी भक्ति थी। उन्होंने भगवान् को सेना और साथियों के सहित समस्त सामग्रियों से युक्त निवासस्थान में ठहराया और उनका यथावत् आतिथ्य-सत्कार किया । विदर्भराज भीष्मकजी के यहाँ निमन्त्रण में जितने राजा आये थे, उन्होंने उनके पराक्रम, अवस्था, बल और धन के अनुसार सारी इच्छित वस्तुएँ देकर सबका खूब सत्कार किया । विदर्भ देश के नागरिकों ने जब सुना कि भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ पधारे हैं, तब वे लोग भगवान् के निवासस्थान पर आये और अपने नयनों की अंजलि से भर-भरकर उनके वदनारविन्द का मधुर मकरन्द-रस पान करने लगे । वे आपस में इस प्रकार बातचीत करते थे—रुक्मिणी इन्हीं की अर्द्धांगिनी होने के योग्य हैं, और ये परम पवित्रमूर्ति श्यामसुन्दर रुक्मिणी के ही योग्य पति हैं। दूसरी कोई इनकी पत्नी होने के योग्य नहीं है । यदि हमने अपने पूर्वजन्म या इस जन्म में कुछ भी सत्कर्म किया हो तो त्रिलोक-विधाता भगवान् हम पर प्रसन्न हों और ऐसी कृपा करें कि श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ही विदर्भ राजकुमारी रुक्मिणी का पाणिग्रहण करें’ ।

परीक्षित्! जिस समय प्रेम-परवश होकर पुरवासी-लोग परस्पर इस प्रकार बातचीत कर रहे थे, उसी समय रुक्मिणीजी अन्तःपुर से निकलकर देवीजी के मन्दिर के लिये चलीं। बहुत-से सैनिक उनकी रक्षा में नियुक्त थे । वे प्रेममूर्ति श्रीकृष्णचन्द्र के चरणकमलों का चिन्तन करती हुई भगवती भवानी के पाद-पल्लवों का दर्शन करने के लिये पैदल ही चलीं । वे स्वयं मौन थीं और माताएँ तथा सखी-सहेलियाँ सब ओर से उन्हें घेरे हुए थीं। शूरवीर राजसैनिक हाथों में अस्त्र-शस्त्र उठाये, कवच पहने उनकी रक्षः कर रहे थे। उस समय मृदंग, शंख, ढोल, तुरही और भेरी आदि बाजे बज रहे थे ।

बहुत-सी ब्राम्हणपत्नियाँ पुष्पमाला, चन्दन आदि सुगन्ध-द्रव्य और गहने-कपड़ों से सज-धजकर साथ-साथ चल रही थीं और अनेकों प्रकार के उपहार तथा पूजन आदि की सामग्री लेकर सहस्त्रों श्रेष्ठ वारांगनाएँ भी साथ थीं । गवैये गाते जाते थे, बाजे वाले बाजे बजाते चलते थे और सूत, मागध तथा वंदीजन दुलहिन के चारों ओर जय-जयकार करते—विरद बखानते जा रहे थे । देवीजी के मन्दिर में पहुँचकर रुक्मिणीजी ने अपने कमल के सदृश सुकोमल हाथ-पैर धोये, आचमन किया; इसके बाद बाहर-भीतर से पवित्र एवं शान्तभाव से युक्त होकर अम्बिकादेवी के मन्दिर में प्रवेश किया । बहुत-सी विधि-विधान जानने वाली बड़ी-बूढ़ी ब्रम्हाणियाँ उनके साथ थीं। उन्होंने भगवान् शंकर की अर्द्धांगिनी भवानी को और भगवान् शंकरजी को भी रुक्मिणीजी से प्रणाम करवाया । रुक्मिणीजी ने भगवती से प्रार्थना की—‘अम्बिकामाता! आपकी गोद में बैठे हुए आपके प्रिय पुत्र गणेशजी को तथा आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ। आप ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि मेरी अभिलाषा पूर्ण हो। भगवान् श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों’। इसके बाद रुक्मिणीजी ने जल, गन्ध, अक्षत, धूप, वस्त्र, पुष्पमाला, हार, आभूषण, अनेकों प्रकार के नैवेद्य, भेंट और आरती आदि सामग्रियों से अम्बिकादेवी की पूजा की । तदनन्तर उक्त सामग्रियों से तथा नमक, पुआ, पान, कण्ठसूत्र, फल और ईख से सुहागिनी ब्रम्हाणियों की भी पूजा की ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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