महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-54

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पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

प्राणियों की शुभ और अशुभ गति का निश्च्य कराने वाले लक्षणों का वर्णन,मृत्यु के दो भेद और यत्रसाध्य मृत्यु के चार भेंदों का कथन,कर्तव्य-पालनपूर्वक शरीर त्याग का महान फल और काम,क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-54 का हिन्दी अनुवाद

उमा ने पूछा- भगवन्! जो कोई मनुष्य मृत्यु के निकट पहुँचे हुए हैं, वे किस प्रकार अपने प्राणों का परित्याग करें, जिससे परलोक में उन्हें कल्याण की प्राप्ति हो?। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! मैं प्रसन्नतापूर्वक तुमसे इस विषय का वर्णन करता हूँ, तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। लोक में दो प्रकार की मृत्यु होती है, एक स्वाभाविक और दूसरी यत्नसाध्य। देवि! इन दोनों में जो स्वाभाविक मृत्यु है, वह अटल है, उसमें कोई बाधा नहीं है। परंतु जो यत्नसाध्य मृत्यु है, वह साधन सामग्री द्वारा सम्भव होती है। शोभने! इन दोनों में जो विधान है, वह मुझसे सुनो। जो यत्नसाध्य मृत्यु है, वह समर्थ और असमर्थ शरीर से सम्बन्ध रखने के कारण दो प्रकार की मानी गयी है। मरने की इच्छा से जो जान-बूझकर अपने शरीर का परित्याग किया जाता है, उसी का नाम है यत्नसाध्य मृत्यु जो असमर्थ शरीर से युक्त है अर्थात् बुढ़ापे के कारण या रोग के कारण असमर्थ हो गया है, उसकी मृत्यु में कारण है महाप्रस्थानगमन, आमरण उपवास, जल में प्रवेश अथवा चिता की आग में जल मरना। यह चार प्रकार का देहत्याग बताया गया है, जिसे मरने की इच्छा वाले पुरूष करते हैं। शोभने! अब क्रमशः इनकी विधि सुनो- मनुष्य स्वधर्मयुक्त गार्हस्थ- आश्रम का दीर्घकाल तक विधिपूर्वक निर्वाह करके उससे उऋण हो वृद्ध अथवा रोगी हो जाने पर अपनी दुर्बलता दिखा सभी लोगों से गृहत्याग के लिये अनुमति ले फिर समस्त भाई-बन्धुओं और कर्मानुष्ठानों का त्याग करके अपने धर्मकार्य के लिये विधिवत् दान करने के पश्चात् मीठी वाणी बोलकर सब लोगों से आज्ञा ले नूतन वस्त्र धारण करके उसे कुश की रस्सी से बाँध ले। इसके बाद आचमनपूर्वक दृढ़ निश्चय के साथ आत्मत्याग की प्रतिज्ञा करके ग्राम्यधर्म को छोड़कर इच्छानुसार कार्य करे। यदि महाप्रस्थान की इच्छा हो तो निराहार रहकर जब तक प्राण निकल न जायँ तब तक उत्तर दिशा की ओर निरन्तर प्रस्थान करे। जब शरीर निष्चेष्ट हो जाय, तब वहीं सोकर उस परमेश्वर में मन लगाकर प्राणों का परित्याग कर दे। ऐसा करने से वह पुण्यात्माओं के निर्मल लोकों को प्राप्त होता है। यदि मनुष्य प्रायोपवेशन (आमरण उपवास) करना चाहे तो पूर्वोक्त विधि से ही घर छोड़कर परम पवित्र श्रेष्ठतम देश में निराहार होकर बैठ जाय। जब तक प्राणों का अन्त न हो तब तक शुद्ध होकर अपनी शक्ति के अनुसार दान करते हुए भगवान के स्मरणपूर्वक प्राणों का परित्याग करे। यह सनातन धर्म है। शुभे! इस प्रकार शरीर का त्याग करके मनुष्य स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। यदि मनुष्य अग्नि में प्रवेश करना चाहे तो उसी विधि से विदा लेकर किसी पुण्यक्षेत्र में अथवा नदियों के तट पर काठ की चिता बनावे। फिर देवताओं को नमस्कार और परिक्रम करके शुद्ध एवं दृढ़निश्चय से युक्त हो श्रीनारायण हरि का स्मरण करते हुए ब्राह्मणों को मस्तक नवाकर उस प्रज्वलित चिताग्नि में प्रवेश कर जाय। ऐसा पुरूष भी यथोचितरूप से उक्त कार्य करके पुण्यात्माओं के लोक प्राप्त कर लेता है। शुभे! यदि कोई जल में प्रवेश करना चाहे तो उसी विधि से किसी विख्यात पवित्रतम तीर्थ में पुण्य का चिन्तन करते हुए डूब जाय। ऐसा मनुष्य भी स्वभावतः पुण्यतम लोकों में जाता है। इसके बाद समर्थ शरीर वाले पुरूष के आत्मत्याग की तात्विक विधि बताता हूँ, सुनो।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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