महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 148 श्लोक 38-56

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अष्टचत्वारिंशदधिकशततम (148) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर: अष्टचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 38-56 का हिन्दी अनुवाद


राजन्! तुम इस संसार में अपनी हत्या कर लेने को ही अधिक महत्तव दे रहे हो। शत्रुदमन! जो प्रतिज्ञा तुमने कर ली है, उसे मिटा देना तुम्हारे लिये उचित नहीं है (तुमने शत्रुओं को जीतकर न्यायापूर्वक प्रजापालन का व्रत लिया है। अब शोकवश आत्महत्या का विचार मन में लाकर तुम उस व्रत से गिर रहे हो, यह ठीक नहीं है)। ये सब राजा लोग युद्ध के मुहाने पर काल के द्वारा मारे गये हैं, हम भी काल से ही मारे गये हैं, क्योंकि काल ही परमेश्वर है। जो काल के स्वरूप को जानता है, वह काल के थपेड़े खाकर भी शोक नहीं करता। श्रीकृष्ण ही लाल नेत्रों वाले दण्डधारी सनातन काल हैं। अतः कुन्तीनन्दन! तुम्हें अपने भाई-बन्धुओं और सगे-सम्बन्धियों के लिये यहाँ शोक नहीं करना चाहिये। कौरव-कुल का आनन्द बढ़ाने वाले युधिष्ठिर! तुम सदा क्रोधहीन एवं शान्त रहो। मैंने इन माधव श्रीकृष्ण का माहात्म्य जैसा सुना था, वैसा कह सुनाया। इनकी महिमा को समझने के लिये इतना ही पर्याप्त है। सज्जन के लिये दिग्दर्शन मात्र उपस्थित होता है। महाराज! व्यासजी तथा बुद्धिमान नारदजी के वचन सुनकर मैंने परम पूज्य श्रीकृष्ण तथा महर्षियों के महान् प्रभाव का वर्णन किया है। भारत! गिरिराजनन्दिनी उमा और महेश्वर का जो संवाद हुआ था, उसका भी मैंने उल्लेख किया है। जो महापुरुष श्रीकृष्ण के इस प्रभाव को सुनेगा, कहेगा और याद रखेगा, उसको परम कल्याण की प्राप्ति होगी। उसके सारे अभीष्ट मनोरथ पूर्ण होंगे और वह मनुष्य मृत्यु के पश्चात् स्वर्गलोक पाता है, इसमें संशय नहीं है। अतः जिसे कल्याण की इच्छा हो, उस पुरुष को जनार्दन की शरण लेनी चाहिये। राजन्! इन अविनाशी श्रीकृष्ण की ही ब्राह्मणों ने स्तुति की है। कुरुराज! भगवान शंकर के मुख से जो धर्म सम्बन्धी गुण प्रतिपादित हुए हैं, उन सबको तुम्हें दिन-रात अपने हृदय में धारण करना चाहिये। ऐसा बर्ताव करते हुए यदि तुम न्यायोचित रीति से दण्ड धारण करके प्रजापालन में कुशलतापूर्वक लगे रहोगे तो तुम्हें स्वर्गलोक प्राप्त होगा। राजन्! तुम धर्मपूर्वक सदा प्रजा की रक्षा करते रहो। प्रजापालन के लिये जो दण्ड का उचित उपयोग किया जाता है, वह धर्म ही कहलाता है। नरेश्वर! भगवान शंकर का पार्वतीजी के साथ जो धर्मविषयक संवाद हुआ था, उसे इन सत्पुरुषों के निकट मैंने तुम्हें सुना दिया। जो अपना कल्याण चाहता हो, वह पुरुष यह संवाद सुनकर अथवा सुनने की कामना रखकर विशुद्धभाव से भगवान शंकर की पूजा करे। पाण्डुनन्दन! उन अनिन्द्य महात्मा देवर्षि नारदजी का ही यह संदेश है कि महादेवजी की पूजा करनी चाहिये। इसलिये तुम भी ऐसा ही करो।प्रभो! कुन्तीनन्दन! भगवान श्रीकृष्ण और महादेवजी का यह अद्भुत एवं स्वाभाविक वृत्तान्त पूर्वकाल में पुण्यमय पर्वत हिमालय पर संघटित हुआ था। इन सनातन श्रीकृष्ण ने गाण्डीवधारी अर्जुन के साथ (नर-नारायणरूप में रहकर) बदरिकाश्रम में दस हजार वर्षों तक बड़ी भारी तपस्या की थी। पृथ्वीनाथ! कमलनयन! श्रीकृष्ण और अर्जुन- ये दोनों सत्ययुग आदि तीनों युगों में प्रकट होने के कारण त्रियुग कहलाते हैं। देवर्षि नारद तथा व्यासजी ने इन दोनों के स्वरूप का परिचय दिया था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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