महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 17 श्लोक 52-64

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:०७, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "भगवान् " to "भगवान ")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

सप्तदश (17) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तदश अध्याय: श्लोक 52-64 का हिन्दी अनुवाद

184 अधर्षणः- अजेय, 185 धर्षणात्मा- भयरूप, 186 यज्ञहा- दक्षके यज्ञका विध्वंस करनेवाले, 187 कामनाशकः- कामदेवको नष्ट करनेवाले, 188 दक्षयागापहारी- दक्षके यज्ञका अपहरण करनेवाले, 189-सुसहः- अति सहनशील, 190 मध्यमः- मध्यस्थ। 191 तेजोपहारी- दूसरोंके तेजको हर लेनेवाले, 192 बलहा- बलनामक दैत्यका वध करनेवाले, 193 मुद्रितः-आनन्दस्वरूप, 194 अर्थः- अर्थस्वरूप, 195 अजितः- अपराजित, 196 अवरः- जिनसे श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं है वे भगवान शिव, 197 गम्भीरघोषः- गम्भीर घोष करनेवाले, 198 गम्भीरः-गाम्भीर्ययुक्त, 199 गम्भीरबलवाहनः- अगाध बलशाली वृषभपर सवारी करनेवाले। 200 न्यग्रोधरूपः- वटवृक्षस्वरूप, 201 न्यग्रोधः- वटनिकटनिवासी, 202 वृक्षकर्णस्थितिः- वटवृक्षके पतेपर शयन करनेवाले बालमुकुन्दरूप, 203 विभुः- विविध रूपोसे प्रकट होनेवाले, 204 सुतीक्ष्णदशनः- अत्यन्त तीखे दांतवाले, 205 महाकायः- बड़े डीलडौलवाले, 206 महाननः- विशाल मुखवाले। 207 विश्वक्सेनः- दैत्योंकी सेनाको सब ओर भगा देनेवाले, 208 हरिः- आपतियोंको हर लेनेवाले, 209 यज्ञः- यज्ञरूप, 210 सयुगापीडवाहनः- युद्धमें पीड़ारहित वाहनवाले, 211 तीक्ष्णतापः- दुःसह तापरूप सूर्य, 212 हर्यष्वः- हरे रंगके घोड़ोसे युक्त, 213 सहायः- जीवमात्रके सखा, 214 कर्मकालवित्- कर्मोके कालको ठीक-ठीक जाननेवाले। 215 विष्णुप्रसादितः- भगवान विष्णुने जिन्हें आराधना करके प्रसन्न किया था वे शिव, 216 यज्ञः- विष्णुस्वरूप, यज्ञो वै विष्णुः, 217 समुद्रः- महासागररूप, 218 वडवामुखः- समुद्रमें स्थित बड़वानलरूप, 219 हुताशनसहायः- अग्निके सखा वायुरूप, 220 प्रशान्तात्मा-शान्तचित, 221 हुताशनः- अग्नि।222 उग्रतेजाः- भयंकर तेजवाले, 223 महातेजाः- महान् तेजसे सम्पन्न, 224 जन्यः- संसारके जन्मदाता, 225 वियजकालवित्- विजयके समयका ज्ञान रखनेवाले, 226 ज्योतिशामयनम्- ज्योतिषोंका स्थान, 227 सिद्धिः- सिद्धिस्वरूप, 228 सर्वविग्रहः- सर्वस्वरूप,। 229शिखी- शिखाधारी गृहस्थस्वरूप, 230 मुण्डी- शिखारहित संन्यासी, 231 जटी- जटाधारी वानप्रस्थ, 232 ज्वाली- अग्निकी प्रज्वलित ज्वालामें समिधाकी आहुति देनेवाले, 233 मूर्तिजः- शरीर रूपसे प्रकट होनेवाले, 234 मूर्द्धगः- मूद्र्धा-सहस्त्रार चक्रमें ध्येय रूपसे विद्यमान, 235 बली- बलिष्ठ, 236 वेणवी- वंशी बजानेवाले श्रीकृष्ण, 237 पणवी- पणव नामक वाद्य बजानेवाले, 238 ताली- ताल देनेवाले,239 खली- खलिहानके स्वामी, 240 काल-कटंकटः- यमराजके मायाके आवृत करनेवाले। 241 क्षत्रविग्रहमतिः- नक्षत्र-ग्रह-तारा आदिकी गतिको जाननेवाले, 242 गुणबुद्धिः- गुणोंमें बुद्धि लगानेवाले, 243 लयः- प्रलयके स्थान, 244 अगमः- जाननेमें आनेवाला, 245 प्रजापतिः- प्रजाके स्वामी, 246 विश्वबाहुः- सब ओर भुजावाले, 247 विभागः- विभागस्वरूप, 248 सर्वगः- सर्वव्यापी, 249 अमुखः- बिना मुखवाला। 250 विमोचनः- संसार-बन्धनसे छुड़ानेवाले, 251 सुसरणः- श्रेष्ठ आश्रय, 252 हिरण्य-कवचोभ्दवः- हिरण्यगर्भकी उत्पतिका स्थान, 253 मेढ़जः-, 254 बलचानी- बलका संचार करनेवाले, 255 महीचारी- सारी पृथ्वीपर विचरनेवाले, 256 स्त्रुतः- सर्वत्र पहुंचे हुए। 257 सर्वतूर्यनिनादी- सब प्रकारके बाजे बजानेवाले, 258 सर्वातोद्यपरिग्रहः- सम्पूर्ण वाद्योंका संग्रह करने वाले, 259 व्यालरूपः- शेषनागस्वरूप, 260 गुहावासी- सबकी हदयगुफामें निवास करनेवाले, 261 गुहः- कार्तिकेयस्वरूप, 262 माली-मालाधारी, 263 तरंगवित्- क्षुधा-पिपासा आदि छहों उर्मियोंके ज्ञाता साक्षी। 264 त्रिदषः- प्राणियोंकी तीन दशाओं-जन्म, स्थिति और विनाशके हेतुभूत, 265 त्रिकालधृक्- भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालोंको धारण करनेवाले, 266 कर्मसर्वबन्धविमोचनः- कर्मोके समस्त बन्धनोंको काटनेवाले, 267 असुरेन्द्राणां बन्धनः- बलि आदि असुरपतियोंको बांध लेनेवाले, 268 युधिशत्रुविनाशनः- युद्धमें शत्रुओंका विनाश करनेवाले। 269 सांख्यप्रसादः- आत्मा और अनात्माके विवकेरूप सांख्यज्ञानसे प्रसन्न होनेवाले, 270 दुर्वासाः- अत्रि और अनसूयाके पुत्र रूद्रावतार दुर्वासा मुनि, 271 सर्वसाधुनिशेवितः- समस्त साधुपुरूषोद्वारा सेवित, 272 प्रस्कन्दनः- स्थानभ्रष्ट करनेवाले, 273 विभागज्ञः- प्राणियोके कर्म और फलोंके विभागको यथोचितरूपसे जाननेवाले, 274 अतुल्यः- तुलनारहित, 275 यज्ञविभागवित्- यज्ञसम्बन्धी हविष्यके विभिन्न भागोंका ज्ञान रखनेवाले। 276 सर्ववासः- सर्वत्र निवास करनेवाले, 277 सर्वचारी- सर्वत्र विचरनेवाले, 278 दुर्वासाः- अनन्त और अपार होनेके कारण जिनको वस्त्रसे आच्छादित करना दुर्लभ है, 279 वासवः- इन्द्रस्वरूप, 280 अमरः- अविनाशी, 281 हैमः- हिमसमूह- हिमालयरूप, 282 हेमकरः- सुवर्णके उत्पादक, 283 अयज्ञः- कर्मरहित, 284 सर्वधारी- सबको धारण करनेवाले, 285 धरोतमः- धारण करनेवालों में सबसे उत्‍तम-अखिल धारण करने वाले।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।